आज ईद है। खुशी और मुसर्रत का दिन। अल्लाह ही तरफ से रोजेदारों को ईनाम का दिन। अपने दिलों से नफरत, रंजिश, ईष्र्या, द्वेष, अदावतें, मतभेद-मनभेद मिटाकर अपने रिश्तेदारों, पड़ोसियों, दोस्तों से गले मिलने का दिन। सेवइयां और मिठाइयां खा-खिलाकर अपने कड़वाहट को मिठास में बदलने का दिन। बच्चों को बड़ों से ईदी लेने और आनंद मनाने का दिन। गरीब, मिसकीन, जरूरतमंद, मोहताज को ईद की नमाज अदा करने से पहले फितरे का दिन। सबसे बड़ी बात यहा है कि अल्लाह का शुक्र अदा करने का दिन, जो एक रोजा रखने का ईनाम स्वरूप रोजेदारों को ईद के रूप में मिलता है। किसी ने क्या खूब कहा है-ईद का दिन है गले हमको लगाकर मिलिए,रस्मे दुनिया भी है, मौका भी है दस्तूर भी है।

ईद जश्न मनाने का दिन नहीं, न ही फिल्मी गानों की धुन पर नाचने-थिरकने का दिन है। इस पावन पर्व के जरिए अल्लाह आर्थिक संतुलन को बनाए रखने और सामाजिक सरोकार जिसमें जात-पात, ऊंच-नीच को दरकिनार कर समाज में सौहा‌र्द्र की फिजा कायम रखने का मार्ग प्रशस्त करता है।

पैगंबर मुहम्मद (स.) ईद बड़ी सादगी से मनाते थे। एक बार का वाकया है। ईद के दिन नबी (स.) फर्ज की नमाज के बाद बाजार गए। एक यतीम बच्चा उन्हें रोता हुआ मिला। कारण पूछने पर पता चला कि ईद के दिन उसके पास नए कपड़े, जूते और पैसे नहीं हैं। नबी (स.) बच्चे को घर ले गए। बच्चे से कहा कि उनकी पत्नी हजरत आयशा (रजि.) उसकी मां है। उनकी बेटी हजरत फातिमा (रजि.) उसकी बहन है और उसके नवासे उसके भाई है। उस बच्चे को नए कपड़े पहनाए, खाना खिलाया ताकि उस यतीम बच्चे को अकेलेपन का एहसास न हो। इस वाकया से हमें सीख मिलती है कि समाज में गरीबों, यतीमों, बेवाओं, बेसहारों, लाचारों के साथ कैस व्यवहार करना चाहिए। समाज में चंद लोग ही ऐसे मिलते हैं, जो ईद की खुशियां गरीबों की बस्ती, झुग्गी झोपडि़यों, यतीमों, गरीब रिश्तेदारों और पड़ोसियों के बीच जाकर मनाते हैं। अधिकांश अपनी हैसियत, रुतबा, पद, शोहरत वालों के घरों में जाकर सेवइयां, बिरयानी सहित तरह-तरह के व्यंजनों का लुत्फ उठाते हैं। और फिर ईद मिलन कार्यक्रमों में बड़े लोगों विशेषकर नेताओं की आवभगत करते नजर आते है।

ईंद सांप्रदायिक सौहा‌र्द्र को मजबूती प्रदान करती है। दूसरे धर्मों के लोग ईद की खुशी में शामिल होकर आपसी भाईचारा, एकता और बंधुत्व का संदेश देते हैं।

डॉ मो जाकिर हुसैन, शिक्षाविद्