Documents  में है जिक्र
पलामू टाइगर रिजर्व झारखंड की कैपिटल सिटी रांची से करीब दो सौ किलोमीटर दूर 1026 स्क्वॉयर किलोमीटर में फैला बेहद ही खूबसूरत फॉरेस्ट एरिया है। इस खूबसूरत फॉरेस्ट की पहचान कभी टाइगर्स और बेशकीमती पेड़ों के साथ-साथ दर्जनों स्पेसीज के एनिमल्स-बड्र्स हुआ करते थे। लेकिन, इस फॉरेस्ट को जब 1974 में बेतला टाइगर प्रोजेक्ट का नाम दिया गया, तो यह टाइगर्स के कारण चर्चा में आ गया। बताया जाता है कि यहां एक समय बाघों की अच्छी-खासी पॉपुलेशन रहा करती थी। इंडिया में साल 1932 में सबसे पहले जब टाइगर्स की गिनती शुरू हुई, तो यहीं से हुई थी। लेकिन, जानकार यही मानते हैं कि आजादी के बाद टाइगर्स का तेजी से शिकार हुआ, जिसके कारण यहां इनकी संख्या लगातार घटती गई। टाइगर्स के गायब होने के मामले में पलामू टाइगर प्रोजेक्ट के दस्तावेज बताते हैं कि यहां टाइगर्स की स्थिति क्या है। दस्तावेज में एक साल के अंदर 11 टाइगर्स के गायब होने के जिक्र है।

अब सिर्फ एक tiger!
सेंटर फॉर सेलुलर एंड मोलेकुलर बायोलॉजी, हैदराबाद की डीएनए रिपोर्ट के मुताबिक, पलामू टाइगर प्रोजेक्ट ने जून 2008 से जुलाई 2009 के बीच जो सैंपल भेजे थे, उसके अनुसार यहां छह टाइगर्स थे। इनमें चार नर और दो मादा शामिल थे। रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि तादाद पुख्ता नहीं भी हो सकती है। जबकि, पलामू टाइगर प्रोजेक्ट जब बना था, उस समय 22 टाइगर्स मौजूद थे। धीरे-धीरे यह आंकड़ा बढ़ता गया। अगले दस साल में ही टाइगर्स की संख्या 60 से ऊपर पहुंच गई थी। इसके बाद टाइगर्स की संख्या लगातार घटती गई। साल 1987 में यह आंकड़ा 60 के नीचे पहुंच गया। छह साल बाद, यानी 1993 में 44 टाइगर्स ही बचे थे। साल 2000 में जब झारखंड बना, उस वक्त यह आंकड़ा 37-38 तक पहुंच गया। साफ था कि पलामू टाइगर प्रोजेक्ट में साल दर साल टाइगर्स की संख्या घटती जा रही थी। 2011-2012 में 16 टाइगर्स आए थे। उनमें से चार गायब हो गए। अब 2012-2013 में पलामू टाइगर रिजर्व की रिपोर्ट में एक ही टाइगर के बारे में जिक्र किया गया है। यानी अभी यहां सिर्फ एक ही टाइगर बचा है। जबकि पूरे देश में 1,411 टाइगर्स हैं। टाइगर्स कहां गए, यह जानने के लिए कैमरे की मदद ली जा रही है। उन्हें ढूंढऩे की कोशिश की जा रही है।

नक्सलियों की करतूत या?
बेतला टाइगर प्रोजेक्ट में एक साल के भीतर ही 11 टाइगर्स कम हो गए हैं। ये टाइगर्स गए कहां? क्या टाइगर्स का शिकार कर लिया गया और आंकड़ों को छिपाकर रखा गया, ताकि टाइगर्स के नाम पर गवर्नमेंट से मोटी रकम वसूली जा सके? ये चंद सवाल हैं, जिनका जवाब किसी के पास नहीं है, लेकिन यह तो क्लियर है कि झारखंड का पलामू टाइगर रिजर्व पूरी तरह नक्सलियों का गढ़ माना जाता है। एक तरह से कहें तो नक्सलियों के इशारे पर ही प्रोजेक्ट से जुड़े ऑफिशियल्स काम करते हैं। घना होने के कारण यह जंगल  नक्सलियों के लिए सिर छिपाने की सबसे मुफीद जगह है। फॉरेस्ट गाड्र्स के मुताबिक, नक्सली भी टाइगर्स का शिकार करते हैं, लेकिन डर से उनके खिलाफ कोई मुंह नहीं खोलता। टाइगर्स की लगातार घटी संख्या के बारे में चीफ कंजर्वेटर प्रेमजीत आनंद व फील्ड ऑफिसर एसई काजमी ने कुछ भी बताने में असमर्थता जताई।