आम मसाला फ़िल्मों से अलग है ये फ़िल्म और इससे करण जौहर का धर्मा प्रोडक्शन जैसा बड़ा बैनर जुड़ा है.

'स्टूडेंट ऑफ़ द ईयर' और 'ये जवानी है दीवानी' जैसी ख़ालिस कमर्शियल फ़िल्म बनाने वाले करण जौहर 'लंच बॉक्स' से जुड़ने की वजह बताते हुए कहते हैं, "ये फ़िल्म मसाला फ़िल्मों से हटके है, लेकिन फिर भी ऐसी फ़िल्म है जिससे जुड़कर मैं गर्व महसूस कर रहा हूं. मैं मानता हूं कि मुझमें ऐसी फ़िल्म बनाने की क़ाबिलियत नहीं है लेकिन फिर भी ऐसी फ़िल्मों को प्रोत्साहित करने के लिए कम से कम हम उनसे जुड़ तो सकते हैं."

बीते कुछ सालों में भी 'शिप ऑफ़ थीसियस', 'पान सिंह तोमर', 'शंघाई' और 'गैंग्स ऑफ़ वासेपुर' जैसी लो बजट की फ़िल्में, जिनमें बड़े सितारे भी नहीं थे उन्हें यू टीवी, वॉयकॉम पीवीआर पिक्चर्स और रिलायंस जैसे प्रोडक्शन हाउस और स्टूडियोज़ ने इनमें पैसा लगाया या डिस्ट्रीब्यूट किया.

तो क्या माना जाए कि छोटे बजट की सितारा विहीन फ़िल्मों के दिन वापस आ गए हैं?

वरदान बने मल्टीप्लेक्स

क्या छोटी फ़िल्मों के दिन फिर लौट आए हैं?

निर्देशक दिबाकर बनर्जी के मुताबिक़, "बीते कुछ सालों में बड़े-बड़े शहरों में कई मल्टीप्लेक्स खुले और इससे नया दर्शक वर्ग तैयार हुआ. और बड़े स्टूडियो और प्रोडक्शन हाउस भी अपनी रेंज बढ़ाना चाहते हैं. साथ ही उन्हें इन फ़िल्मों में फ़ायदा भी नज़र आने लगा है. शायद इसलिए ऐसी फ़िल्मों के प्रति उनका उत्साह बढ़ रहा है."

अभिनेता मनोज वाजपेयी भी मौजूदा दौर को अच्छा दौर मानते हैं.

वो कहते हैं, "आज से कुछ साल पहले तक लोग ऐसी फ़िल्मों में पैसा लगाने के लिए तैयार नहीं होते थे. लेकिन आज जहां बड़े बजट की मसाला फ़िल्में बन रही हैं तो वहीं छोटे फ़िल्मकार लीक से हटके गंभीर, अर्थपूर्ण फ़िल्में बनाने का भी साहस कर पा रहे हैं. इसकी वजह है कि उन्हें यक़ीन होता है कि कहानी में दम होगा तो पैसे लगाने के लिए प्रोड्यूसर उन्हें मिल जाएगा."

शुरुआती दौर

क्या छोटी फ़िल्मों के दिन फिर लौट आए हैं?1980 के दशक में नेशनल फ़िल्म डेवलपमेंट कॉर्पोरेशन ने 'पेस्टनजी', 'मिर्च मसाला', 'जाने भी दो यारो' और 'सलाम बॉम्बे' जैसी तमाम फ़िल्में बनाईं.

उस वक़्त श्याम बेनेगल, गोविंद निहलाणी, केतन मेहता और मीरा नायर जैसे फ़िल्मकारों के लिए एनएफ़डीसी एक सहारा हुआ करता था.

हालांकि इन फ़िल्मकारों को काफ़ी कम बजट में फ़िल्में बनाने को कहा जाता.

1983 में आई बेहद चर्चित और समीक्षकों द्वारा सराही गई फ़िल्म 'जाने भी दो यारो' के निर्देशक कुंदन शाह ने बीबीसी से बात करते हुए बताया कि उन्हें उस वक़्त फ़िल्म बनाने में कितनी तकलीफ़ें झेलनी पड़ीं.

वो कहते हैं, "फ़िल्म बनाने के लिए तक़रीबन सात लाख रुपए का बजट ही निर्धारित किया गया था. ये अलग बात है कि बाद में शूटिंग करते करते ये बढ़ गया. लेकिन हमें बेहद तंग हालात में शूटिंग करनी पड़ी. यूनिट के लोगों के लिए सिर्फ़ दाल, रोटी बनती. कभी-कभी चावल बन जाता. दाल में पानी मिला मिलाकर हम उसे पूरा करते."

दायरा बढ़ा

क्या छोटी फ़िल्मों के दिन फिर लौट आए हैं?लेकिन अब बड़े प्रोडक्शन हाउस और स्टूडियो के आने से फ़िल्मकार थोड़ा और आज़ादी से फ़िल्म बना सकते हैं.

फ़िल्म समीक्षक अर्णब बनर्जी, अनुराग कश्यप और दिबाकर बनर्जी जैसे फ़िल्मकारों की सराहना करते हैं.

वो कहते हैं, "ये फ़िल्मकार ना सिर्फ़ विविध तरह का सिनेमा बना रहे हैं बल्कि विक्रमादित्य मोटवाने जैसे निर्देशकों को मौक़ा भी दे रहे हैं नए तरह का सिनेमा बनाने का. 'उड़ान', 'शैतान' और 'लुटेरा' जैसी फ़िल्में इस का सुबूत हैं. अनुराग और दिबाकर अब इतने बड़े नाम बन गए हैं कि इनकी फ़िल्मों में पैसा लगाने के लिए बड़े प्रोडक्शन हाउस जैसे यूटीवी और यशराज बैनर भी तैयार हो रहे हैं."

कमियां

वैसे अर्णब ये भी कहते हैं कि माहौल पूरा सकारात्मक है ये मानना भी ठीक नहीं.

उनके मुताबिक़, "बड़े प्रोडक्शन हाउस और स्टूडियो भी तो आख़िर पैसा कमाना चाहते हैं. उनकी तमन्ना होती है कि जो पैसा वो लगाएं वो वापस आए. इस वजह से वो जिन फ़िल्मकारों की फ़िल्म में पैसा लगाते हैं उनसे अपने तरह का सिनेमा बनवाना चाहते हैं. जैसे करण जौहर या यशराज के प्रोडक्शन हाउस से जो फ़िल्में निकलेंगी उनमें उनके सिनेमा की छाप ही होती है."

क्या छोटी फ़िल्मों के दिन फिर लौट आए हैं?

लेकिन इरफ़ान जैसे अदाकार ख़ुश हैं. वो करण जौहर जैसा बड़ा नाम अपनी फ़िल्म 'लंच बॉक्स' से जुड़ने को अच्छा संकेत मानते हैं.

वो ये भी मानते हैं कि इससे फ़िल्ममेकिंग के समीकरण बदलेंगे और मसाला फ़िल्मों के साथ-साथ ऐसी फ़िल्मों के लिेए भी अच्छा माहौल बनेगा.

अच्छे संकेत

मनोज वाजपेयी जैसे अदाकार भी मानते हैं कि 90 के दशक और इस दशक के शुरुआत में जो दौर था उससे कहीं बेहतर मौजूदा दौर है. जब छोटी फ़िल्मों का भी नया मार्केट स्थापित होता जा रहा है.

फ़िल्मकार दिबाकर बनर्जी 'दबंग', 'राऊडी राठौड़' और 'चेन्नई एक्सप्रेस' जैसी मसाला फ़िल्मों के साथ-साथ 'लंच बॉक्स' जैसी फ़िल्मों का भी स्वागत करते हैं.

वो कहते हैं, "मसाला फ़िल्मों का बनना और सौ करोड़ रुपए कमाना भी छोटी फ़िल्मों के लिए अच्छा है. ये कमर्शियल फ़िल्में हमसे कॉम्पटीशन नहीं बल्कि हमारी मदद कर रही हैं. इनकी वजह से ही छोटी फ़िल्में बॉलीवुड में सरवाइव कर पाएंगी."

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