- उर्दू अदम के मशहूर शायर फिराक का गोरखपुर से रहा है गहरा नाता

- 1930 में इलाहाबाद यूनिवर्सिटी से अंग्रेजी विभाग में प्रवक्ता हुए और पढ़ाने के साथ शेरो-शायरी में डूब गए

GORAKHPUR: शहर गोरखपुर उर्दू अदब में आज किसी पहचान का मोहताज नहीं है। यहीं से देश के महान साहित्यकार प्रेमचंद का नाता रहा है, तो यहीं से 20वीं सदी में उर्दू अदब के सबसे बड़े शायर फिराक गोरखपुरी ताल्लुख रखते हैं। उर्दू अदब में अल्लामा इकबाल के बाद अगर किसी का नंबर आता है तो वह फिराक गोरखपुरी का ही नाम है। शहर से पुराना नाता और यहां से मुहब्बत का ही नतीजा था कि उन्होंने अपने तखल्लुस के साथ गोरखपुर का नाम भी जोड़ लिया। यह फिराक ही थे जिन्होंने न सिर्फ अपने हुनर के दम पर देश ही नहीं बल्कि विदेश में भी अपनी कामयाबी का परचम लहराया और अपने शहर को अलग पहचान दिलाई।

इब्रत गोरखपुरी नाम से करते थे शायरी

गोरखपुर के बांसगांव में पैदा हुए फिराक गोरखपुरी को शुरु से ही पढ़ने लिखने का काफी शौक था। उनके पिता गोरख प्रसाद भी 'इब्रत गोरखपुरी' के नाम से शायरी किया करते थे। वह शहर के सबसे बेहतरीन वकीलों में शामिल थे। घर में पहले से ही साहित्य का माहौल मिलने की वजह से फिराक का साहित्य से साथ नहीं छूटा। अपनी हाईस्कूल तक की एजुकेशन गवर्नमेंट जुबली इंटर कॉलेज से करने के बाद वह इलाहाबाद चले गए। वहां सेंट्रल कॉलेज से उन्होंने अपना इंटरमीडिएट कंप्लीट किया, बीए एग्जाम में उन्होंने मेरिट में दूसरी पोजीशन हासिल की। आगरा यूनिवर्सिटी से प्राइवेट अंग्रेजी में एमए किया और 1930 में इलाहाबाद यूनिवर्सिटी से अंग्रेजी विभाग में प्रवक्ता हो गए और पढ़ाने के साथ शेरो-शायरी में डूब गए। 1930 से 1959 तक फिराक ने इलाहाबाद यूनिवर्सिटी में बतौर इंग्लिश प्रोफेसर अपनी जिम्मेदारी निभाई। 1960 में वह रिटायर हुए और 1982 में दुनिया से रुखसत हो गए।

प्रिंस के दौरे का किया था विरोध

गोरखपुर से इलाहाबाद पहुंचे फिराक को वहां की साहित्यिक और राजनैतिक सरगर्मी ने काफी प्रभावित किया। इस दौरान उनके ऊपर शायरी के साथ-साथ वतन परस्ती का जज्बा हावी था और वह नेहरू व गांधी से बेहद प्रभावित थे। 1920 में ही जब जार्ज पंचम के वली अहद प्रिंस ऑफ वेल्स भारत का दौरा करने आए तो महात्मा गांधी जी के नेतृत्व में उन्होंने इस दौरे का बॉयकाट किया गया। पंडित नेहरू की गिरफ्तारी के बाद इलाहाबाद में कांग्रेस की सूबाई कमेटी की मीटिंग हुई, जिसमें फिराक पूरे जोर व शोर से शरीक हुए, जिसके बाद उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया। पहले उन्हें मलाका जेल ले जाया गया। मुकदमे के बाद फिराक को आगरा जेल शिफ्ट कर दिया गया। फिराक साल भर से ज्यादा जेल में रहे। जेल में मुशायरों का दौर शुरु हुआ, जिसमें फिराक ने कई गजलें इसी जेल में कहीं। उनकी यह दो गजलें काफी मशहूर हुई।

'अहले जिन्दा की यह महफिल है सुबूत इसका 'फिराक'

कि बिखर कर भी यह शीराजा परेशां न हुआ'

खुलासा हिन्द की तारीख का यह है हमदम

यह मुल्क वक्फे-सितम हाए रोजगार रहा

'प्रेमचंद' ने दिलाई पहचान

एजुकेशन फील्ड में दबदबा रखने वाले फिराक का उर्दू की तरक्की में बड़ा हाथ है। वह मशहूर साहित्यकार प्रेमचंद के काफी करीबी थे। फिराक को बड़े लोगों के बीच ले जाने और उन्हें पहचान दिलाने में प्रेमचंद का बड़ा हाथ है। जानकारों की मानें तो फिराक उमदा शायर तो थे ही साथ ही एक बड़े आलोचक भी थे। उर्दू आलोचन के मैदान में उन्होंने नए ट्रेंड को डेवलप किया। रूबाई (चौपाई) में उनका कोई जवाब नहीं था। इश्किया शायरी, अंदाजे उनकी अहम किताबों में से हैं। उमर कय्याम परशियन रुबाई के सबसे बड़े शायर माने जाते हैं, जिनके लेख का अनुसरण करते हुए हरिबंश राय बच्चन ने 'मधुशाला' लिखी। इसे आगे बढ़ाते हुए फिराक ने इसे नए अंदाज में पेश किया, जो 'रूप' के नाम से छपा। ऐसी रुबाई आज तक नहीं लिखी गई।

अहम किताबें - रूहे कायनात, रन्जो कायनात, गजलिस्तान, शबनममिस्तान, गुले नगमा, रूप, अंदाजे उर्दू की अश्कियां, जनीर की बानी, बज्म-ए-जिंदगी, रंग-ए-शायरी, मन आनम, हमारा सबसे बड़ा दुश्मन, राग-विराग, धरती की करवट, नवरत्‍‌न।

पुरस्कार-सम्मान

1960 में साहित्य अकादमी

1968 में पद्म भूषण

1969 में ज्ञानपीठ

1975 में आगरा यूनिवर्सिटी से डी.लिट