केडीए के न्यू कानपुर सिटी फेज-1 और फेज-2 मास्टर प्लान में खुद केडीए और बिल्डर्स ने जमकर कोर्ट के आदेशों की धज्जियां उड़ाई हैं। इंटेलेक्चुअल वर्ग का कहना है कि कोर्ट के आदेशों को नहीं मानकर विकास प्राधिकरण और कंस्ट्रक्शंस करने वालों ने जहां पर्यावरण व वन्य जीवन को भारी नुकसान पहुंचाया है, वहीं देश की लाइफ लाइन कही जाने वाली गंगा नदी की हजारों एकड़ जमीन भी हड़प ली है। इन ‘गोलमाल’ का खामियाजा आम पब्लिक को भुगतना पड़ेगा.
इतने सारे अवैध कंस्ट्रक्शंस!
शहर के आरटीआई एक्टिविस्ट अरविंद त्रिपाठी के अनुसार राजस्व ग्राम ख्योरा बांगर मेंं, जिस पर इस वक्त कई बिल्डर्स मल्टी स्टोरी कंस्ट्रक्शंस कर रहे हैं और जहां पर इस वक्त कई नामचीन स्कूल और संस्थान बन गए हैं, वो जमीन तहसील के रिकॉर्ड्स में जलमग्न भूमि के रूप में दर्ज है। इस जमीन को श्रेणी 6-क की ग्रेड मिली हुई है। जिसका भू प्रयोग परिवर्तित नहीं किया जा सकता है। ये हिस्सा न्यू कानपुर सिटी फेज-2 मास्टर प्लान में है। सन् 1936 और 1947 के रिकॉर्ड में, यानि आजादी के पहले और बाद में तहसील के बाद भी ये 175 हेक्टेयर जमीन जलमग्न भूमि ही दर्ज है। वहीं ये कंस्ट्रक्शंस अपने पीछे बहने वाली गंगा से भी 500 मीटर से कम की दूरी पर हैं। इसलिए ये सारे निमार्ण हर तरह से अवैध हैं। बिल्डर्स और केडीए पूरी तरह कोर्ट के आदेशों और नियमों की धज्जियां उड़ा रहे हैं. 
इस आदेश की धज्जियां उड़ाईं !
सन 2001 में सुप्रीम कोर्ट की जस्टिस एस कादरी और एस फकन की बेंच ने ‘हिंच लाल तिवारी वर्सेज कमला देवी एंड अदर्स’ केस (यूपी के ही संत रविदासनगर का मामला) में ये लैंडमार्क निर्णय दिया था कि किसी भी तालाब, जलाशय आदि को बिगाडक़र, उसका स्वरूप परिवर्तित करके कंस्ट्रक्शन या अतिक्रमण नहीं किया जा सकता है। अगर किसी एथॉरिटी या बॉडी को पब्लिक के हित में विकास कार्य के लिए ‘वॉटर बॉडी’ का स्वरूप चेंज करना ही पड़ता है, तो ऐसा करने वाले को वैसी ही दूसरी वॉटर बॉडी क्रिएट करनी पड़ेगी। यानि के तालाब आदि को बिगाडऩे पर उसकी प्रतिपूर्ति करनी होगी.
तुरंत डिमॉलिश हो ऐसा स्ट्रक्चर
इस कोर्ट आदेश का निष्कर्ष है कि अगर एथॉरिटी या व्यक्ति बिगाड़ी गई वॉटर बॉडी की प्रतिपूर्ति करने की स्थिति में नहीं है, तो उस स्थिति में कंस्ट्रक्शन को डिमॉलिश कर दिया जाए। अगर बनाने वाले उसे नहीं तोड़ते हैं तो डीएम, शासन-प्रशासन, संबंधित विभाग आदि के अधिकारी उस कंस्ट्रकशन या अतिक्रमण को डिमॉलिश करें और वॉटरबॉडी को रीस्टोर करें। ऐसा नहीं करने पर संबंधित एथॉरिटीज व लोगों के खिलाफ कानूनी कार्यवाई हो.
‘धारा’ मांगे अपनी ‘धरा’
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्य्रहृक्कक्र (१ रूड्ड4): जनहित याचिका दायर करके देश की 7 आईआईटीज की कंसॉर्टियम और ‘नेशनल गंगा रिवर बेसिन प्रोजेक्ट’ की नींव डलवाने वाले इलाहाबाद हाईकोर्ट के एडवोकेट एके गुप्ता के अनुसार हर व्यक्ति की जमीन अभिलेखों में दर्ज होती है। लेकिन गंगा नदी की जमीन का आज तक कोई रिकॉर्ड मेनेटेन नहीं है। जबकि कोर्ट अपने डिसीजंस में कह चुका है कि नदी भी किसी व्यक्ति की तरह एक लिविंग सिस्टम है। और उसे भी अपने जीवन के लिए (बहने के लिए) जमीन और जगह चाहिए. 
एडवोकेट गुप्ता ने आई नेक्स्ट को बताया कि 22 अप्रैल सन 2010 में इलाहाबाद हाईकोर्ट द्वारा दिए गए निर्णय में गंगा की जमीन (रिवर लैंड) से 500 मीटर की दूरी तक कोई भी कंस्ट्रक्शन करने पर पाबंदी है। इसे कोर्ट ने ‘नो कंस्ट्रक्शन जोन’ घोषित कर दिया है.
मानक भी दरकिनार किए
एडवोकेट गुप्ता ने ये भी बताया कि गंगा रिवर फ्लड कमीशन ने कुछ मानक फिक्स किए हैं। कमीशन के अनुसार तहसील अपने सौ साला रिकॉर्ड्स को खंगाल कर बताएगी कि पिछले 100 वर्षों में नदी में आने वाली बाढ़ का हाईएस्ट प्वाइंट क्या रहा है। उतना एरिया ‘रिवर प्लेन’ या नदी की जमीन कहलाएगा। और यही जमीन इकोलॉजिकल फ्लो लैंड कहलाएगी, जिसपर लोकल बॉडीज को ट्री प्लांटेशन (पौधारोपड़) करना है. 
पूरा मास्टर प्लान ही अवैध है!
कुल मिलाकर इन दोनों डिसीजंस में कोर्ट ने बाढ़ में डूबने वाली और उससे भी आगे की 500 मीटर जमीन सहित तालाबों, प्राकृतिक नालों आदि वॉटर बॉडीज पर हर सूरत में कंस्ट्रक्शंस को वर्जित कर दिया है। जबकि शहर में कानपुर सिटी फेज-1 और फेज-2, दोनों में ही पूरे के पूरे सेटिलमेंट गंगा की जमीन पर ही कर डाले गए, जो नेशनल गंगा रिवर बेसिन प्रोजेक्ट कोआर्डिनेटर प्रो। राजीव सिन्हा के अनुसार अवैध ही नहीं खतरनाक भी है.
अगर कोर्ट आदेश के खिलाफ तालाब आदि पर कंस्ट्रक्शंस हो रहे हैं तो लोग उसके पुख्ता डॉक्यूमेंट्री एवीडेंस हमारे सामने लाएं, तब ही किसी प्रकार की जांच या कार्रवाई के बारे में सोचा जा सकता है। बिना दोनों पक्षों के डॉक्यूमेंट्स देखे कुछ कहा नहीं जा सकता है. 
-जयश्री भोज, केडीए वीसी

हमने प्रोजेक्ट में अरबों रुपए यूं ही नहीं इनवेस्ट कर रखे हैं। मास्टर प्लान केडीए का है, शासन ने इसे लागू किया है, तो सोच-समझकर किया होगा। हमें पर्यावरण विभाग और दूसरी संबंधित संस्थाओं से एनओसी मिली है। ये एरिया लो लैंड एरिया है। जलभराव की समस्या सिंचाई विभाग का मार्जिनल बांध बनने के बाद खत्म हो जाएगी। हमारी कंस्ट्रक्शन की जगह पर ड्राई लैंड थी, कोई तालाब नहीं। हमारे पास इसके प्रूफ भी हैं। आईआईटी वैज्ञानिकों का मत अलग बात है.
-एसके पालिवाल, निदेशक एनआरआई सिटी

सरकार ही योजना यहां पर ला रही है और हम कंस्ट्रक्शंस कर रहे हैं। जलभराव या बाढ़ की बात है तो बैराज किस लिए बनाया गया है। फिर पॉल्यूशन रोकने या इकोलॉजी प्रोटेक्शन की बात है तो हम सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट लगा रहे हैं। वर्ना एनओसी ही नहीं मिलेगी। फिर हमारे कंस्ट्रक्शन की जगह कोई तालाब या वॉटर बॉडी नहीं थी। जहां तक गंगा का रुख पलटने से पूरा इलाका जलमग्न होने की बात वैज्ञानिक कह रहे हैं, गंगा में आज की स्थिति देखकर मुझे तो नहीं लगता ऐसी कोई संभावना है.
-संजय खत्री, सीएमडी, रतन हाउसिंग डेवलपमेंट लिमिटेड

‘इन लोगों को माफ मत करना’

्य्रहृक्कक्र: रेमन मैगसेसे पुरस्कार विजेता और नेशनल गंगा रिवर बेसिन प्रोजेक्ट के एक्सपर्ट मेंबर, देश के ‘जल पुरुष’ राजेंद्र सिंह ने कानपुर की गंगा रिवर वैली में ‘इकोलॉजिकल डिजास्टर’ मचाने वालों को आड़े हाथों लिया है। राजेंद्र सिंह कहते हैं कि केडीए, बिल्डर्स और शासन ने हिंच लाल तिवारी केस (2001) के निर्णय बावजूद ऐसा करके कोर्ट अवमानना तो की ही है, कानून भी तोड़े हैं। तालाबों और नहरों को पाटने का गुनाह किया है। आम लोगों को भुगतना पड़ेगा। उन्होंने कहा कि अब कानपुर के लोगों को संगठित होकर केडीए और शासन के खिलाफ इस मुद्दे पर आंदोलन छेडऩा होगा। वो अपने साथियों से न्यू कानपुर सिटी में अवैध कंस्ट्रक्शंस के खिलाफ मोर्चा खोलें। वहीं मिलकर कोर्ट में नई पीआईएल दाखिल करें। कहा जरूरत पड़ी तो आंदोलन में शामिल होने वो खुद कानपुर आएंगे। प्रकृति के साथ खिलवाड़ करने वालों को माफ नहीं किया जा सकता. 

केडीए के न्यू कानपुर सिटी फेज-1 और फेज-2 मास्टर प्लान में खुद केडीए और बिल्डर्स ने जमकर कोर्ट के आदेशों की धज्जियां उड़ाई हैं। इंटेलेक्चुअल वर्ग का कहना है कि कोर्ट के आदेशों को नहीं मानकर विकास प्राधिकरण और कंस्ट्रक्शंस करने वालों ने जहां पर्यावरण व वन्य जीवन को भारी नुकसान पहुंचाया है, वहीं देश की लाइफ लाइन कही जाने वाली गंगा नदी की हजारों एकड़ जमीन भी हड़प ली है। इन ‘गोलमाल’ का खामियाजा आम पब्लिक को भुगतना पड़ेगा।

इतने सारे अवैध कंस्ट्रक्शंस!

शहर के आरटीआई एक्टिविस्ट अरविंद त्रिपाठी के अनुसार राजस्व ग्राम ख्योरा बांगर मेंं, जिस पर इस वक्त कई बिल्डर्स मल्टी स्टोरी कंस्ट्रक्शंस कर रहे हैं और जहां पर इस वक्त कई नामचीन स्कूल और संस्थान बन गए हैं, वो जमीन तहसील के रिकॉर्ड्स में जलमग्न भूमि के रूप में दर्ज है। इस जमीन को श्रेणी 6-क की ग्रेड मिली हुई है। जिसका भू प्रयोग परिवर्तित नहीं किया जा सकता है। ये हिस्सा न्यू कानपुर सिटी फेज-2 मास्टर प्लान में है। सन् 1936 और 1947 के रिकॉर्ड में, यानि आजादी के पहले और बाद में तहसील के बाद भी ये 175 हेक्टेयर जमीन जलमग्न भूमि ही दर्ज है। वहीं ये कंस्ट्रक्शंस अपने पीछे बहने वाली गंगा से भी 500 मीटर से कम की दूरी पर हैं। इसलिए ये सारे निमार्ण हर तरह से अवैध हैं। बिल्डर्स और केडीए पूरी तरह कोर्ट के आदेशों और नियमों की धज्जियां उड़ा रहे हैं. 

इस आदेश की धज्जियां उड़ाईं !

सन 2001 में सुप्रीम कोर्ट की जस्टिस एस कादरी और एस फकन की बेंच ने ‘हिंच लाल तिवारी वर्सेज कमला देवी एंड अदर्स’ केस (यूपी के ही संत रविदासनगर का मामला) में ये लैंडमार्क निर्णय दिया था कि किसी भी तालाब, जलाशय आदि को बिगाडक़र, उसका स्वरूप परिवर्तित करके कंस्ट्रक्शन या अतिक्रमण नहीं किया जा सकता है। अगर किसी एथॉरिटी या बॉडी को पब्लिक के हित में विकास कार्य के लिए ‘वॉटर बॉडी’ का स्वरूप चेंज करना ही पड़ता है, तो ऐसा करने वाले को वैसी ही दूसरी वॉटर बॉडी क्रिएट करनी पड़ेगी। यानि के तालाब आदि को बिगाडऩे पर उसकी प्रतिपूर्ति करनी होगी।

तुरंत डिमॉलिश हो ऐसा स्ट्रक्चर

इस कोर्ट आदेश का निष्कर्ष है कि अगर एथॉरिटी या व्यक्ति बिगाड़ी गई वॉटर बॉडी की प्रतिपूर्ति करने की स्थिति में नहीं है, तो उस स्थिति में कंस्ट्रक्शन को डिमॉलिश कर दिया जाए। अगर बनाने वाले उसे नहीं तोड़ते हैं तो डीएम, शासन-प्रशासन, संबंधित विभाग आदि के अधिकारी उस कंस्ट्रकशन या अतिक्रमण को डिमॉलिश करें और वॉटरबॉडी को रीस्टोर करें। ऐसा नहीं करने पर संबंधित एथॉरिटीज व लोगों के खिलाफ कानूनी कार्यवाई हो।

‘धारा’ मांगे अपनी ‘धरा’

 जनहित याचिका दायर करके देश की 7 आईआईटीज की कंसॉर्टियम और ‘नेशनल गंगा रिवर बेसिन प्रोजेक्ट’ की नींव डलवाने वाले इलाहाबाद हाईकोर्ट के एडवोकेट एके गुप्ता के अनुसार हर व्यक्ति की जमीन अभिलेखों में दर्ज होती है। लेकिन गंगा नदी की जमीन का आज तक कोई रिकॉर्ड मेनेटेन नहीं है। जबकि कोर्ट अपने डिसीजंस में कह चुका है कि नदी भी किसी व्यक्ति की तरह एक लिविंग सिस्टम है। और उसे भी अपने जीवन के लिए (बहने के लिए) जमीन और जगह चाहिए. 

एडवोकेट गुप्ता ने आई नेक्स्ट को बताया कि 22 अप्रैल सन 2010 में इलाहाबाद हाईकोर्ट द्वारा दिए गए निर्णय में गंगा की जमीन (रिवर लैंड) से 500 मीटर की दूरी तक कोई भी कंस्ट्रक्शन करने पर पाबंदी है। इसे कोर्ट ने ‘नो कंस्ट्रक्शन जोन’ घोषित कर दिया है।

मानक भी दरकिनार किए

एडवोकेट गुप्ता ने ये भी बताया कि गंगा रिवर फ्लड कमीशन ने कुछ मानक फिक्स किए हैं। कमीशन के अनुसार तहसील अपने सौ साला रिकॉर्ड्स को खंगाल कर बताएगी कि पिछले 100 वर्षों में नदी में आने वाली बाढ़ का हाईएस्ट प्वाइंट क्या रहा है। उतना एरिया ‘रिवर प्लेन’ या नदी की जमीन कहलाएगा। और यही जमीन इकोलॉजिकल फ्लो लैंड कहलाएगी, जिसपर लोकल बॉडीज को ट्री प्लांटेशन (पौधारोपड़) करना है. 

पूरा मास्टर प्लान ही अवैध है!

कुल मिलाकर इन दोनों डिसीजंस में कोर्ट ने बाढ़ में डूबने वाली और उससे भी आगे की 500 मीटर जमीन सहित तालाबों, प्राकृतिक नालों आदि वॉटर बॉडीज पर हर सूरत में कंस्ट्रक्शंस को वर्जित कर दिया है। जबकि शहर में कानपुर सिटी फेज-1 और फेज-2, दोनों में ही पूरे के पूरे सेटिलमेंट गंगा की जमीन पर ही कर डाले गए, जो नेशनल गंगा रिवर बेसिन प्रोजेक्ट कोआर्डिनेटर प्रो। राजीव सिन्हा के अनुसार अवैध ही नहीं खतरनाक भी है।

अगर कोर्ट आदेश के खिलाफ तालाब आदि पर कंस्ट्रक्शंस हो रहे हैं तो लोग उसके पुख्ता डॉक्यूमेंट्री एवीडेंस हमारे सामने लाएं, तब ही किसी प्रकार की जांच या कार्रवाई के बारे में सोचा जा सकता है। बिना दोनों पक्षों के डॉक्यूमेंट्स देखे कुछ कहा नहीं जा सकता है. 

-जयश्री भोज, केडीए वीसी

 

हमने प्रोजेक्ट में अरबों रुपए यूं ही नहीं इनवेस्ट कर रखे हैं। मास्टर प्लान केडीए का है, शासन ने इसे लागू किया है, तो सोच-समझकर किया होगा। हमें पर्यावरण विभाग और दूसरी संबंधित संस्थाओं से एनओसी मिली है। ये एरिया लो लैंड एरिया है। जलभराव की समस्या सिंचाई विभाग का मार्जिनल बांध बनने के बाद खत्म हो जाएगी। हमारी कंस्ट्रक्शन की जगह पर ड्राई लैंड थी, कोई तालाब नहीं। हमारे पास इसके प्रूफ भी हैं। आईआईटी वैज्ञानिकों का मत अलग बात है।

-एसके पालिवाल, निदेशक एनआरआई सिटी

सरकार ही योजना यहां पर ला रही है और हम कंस्ट्रक्शंस कर रहे हैं। जलभराव या बाढ़ की बात है तो बैराज किस लिए बनाया गया है। फिर पॉल्यूशन रोकने या इकोलॉजी प्रोटेक्शन की बात है तो हम सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट लगा रहे हैं। वर्ना एनओसी ही नहीं मिलेगी। फिर हमारे कंस्ट्रक्शन की जगह कोई तालाब या वॉटर बॉडी नहीं थी। जहां तक गंगा का रुख पलटने से पूरा इलाका जलमग्न होने की बात वैज्ञानिक कह रहे हैं, गंगा में आज की स्थिति देखकर मुझे तो नहीं लगता ऐसी कोई संभावना है।

-संजय खत्री, सीएमडी, रतन हाउसिंग डेवलपमेंट लिमिटेड

 

‘इन लोगों को माफ मत करना’

्य्रहृक्कक्र: रेमन मैगसेसे पुरस्कार विजेता और नेशनल गंगा रिवर बेसिन प्रोजेक्ट के एक्सपर्ट मेंबर, देश के ‘जल पुरुष’ राजेंद्र सिंह ने कानपुर की गंगा रिवर वैली में ‘इकोलॉजिकल डिजास्टर’ मचाने वालों को आड़े हाथों लिया है। राजेंद्र सिंह कहते हैं कि केडीए, बिल्डर्स और शासन ने हिंच लाल तिवारी केस (2001) के निर्णय बावजूद ऐसा करके कोर्ट अवमानना तो की ही है, कानून भी तोड़े हैं। तालाबों और नहरों को पाटने का गुनाह किया है। आम लोगों को भुगतना पड़ेगा। उन्होंने कहा कि अब कानपुर के लोगों को संगठित होकर केडीए और शासन के खिलाफ इस मुद्दे पर आंदोलन छेडऩा होगा। वो अपने साथियों से न्यू कानपुर सिटी में अवैध कंस्ट्रक्शंस के खिलाफ मोर्चा खोलें। वहीं मिलकर कोर्ट में नई पीआईएल दाखिल करें। कहा जरूरत पड़ी तो आंदोलन में शामिल होने वो खुद कानपुर आएंगे। प्रकृति के साथ खिलवाड़ करने वालों को माफ नहीं किया जा सकता.