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LUCKNOW : सूत्रों की मानें तो रिपोर्ट में उल्लेख किया गया है कि यह संस्थान विदेशी अनुदान से चलाया जा रहा था क्योंकि राज्य सरकार ने पिछले तीन साल से इसका अनुदान रोक रखा था। यह गोरखधंधा कारा (सेंटल एडॉप्शन रिसोर्स अथॉरिटी) के जरिए विदेशियों को बच्चे एडॉप्ट कराने के नाम पर चल रहा था। शासन के निर्देश के बाद भी कारा ने इस संस्थान से बच्चों को एडॉप्ट करना बंद नहीं किया। साथ ही यह भी जिक्र है कि डीएम से लेकर निचले स्तर पर तमाम निर्देश देने के बावजूद संस्थान पर ठोस कार्रवाई न होने से साफ है कि इसे कोई खुला संरक्षण दे रहा था।

मेडिकल रिपोर्ट से होगा तय

खास बात यह है कि जांच समिति ने अपनी रिपोर्ट में बालिका गृह में रहने वाली लड़कियों के शारीरिक शोषण की अपनी तरफ से पुष्टि नहीं की है। कमेटी ने तमाम लड़कियों और बच्चियों के बयान दर्ज कर उसे रिपोर्ट में शामिल किया है। साथ ही यह भी उल्लेख किया है कि लड़कियों ने शारीरिक शोषण होने का बयान दिया है पर इसकी पुष्टि मेडिकल चेकअप की रिपोर्ट के आधार पर ही हो सकती है। सूत्रों की मानें तो बच्चियों ने समिति की सदस्य अपर मुख्य सचिव रेणुका कुमार और एडीजी महिला सुरक्षा अंजू गुप्ता के सामने खुलकर सारी बातें कहीं और संचालिका पर तमाम संगीन आरोप जड़े हैं जो घटना के बाद सार्वजनिक भी हुए थे। ध्यान रहे कि यह एक ऐसा पहलू है जिसकी जांच सीबीआई को भी खासी गहनता के साथ करनी होगी।

चुप्पी साधे रहे डीएम
जांच में इसकी भी पुष्टि हुई है कि देवरिया में तैनात रहे डीएम सुजीत कुमार ने अपनी जिम्मेदारियों को ठीक से नहीं निभाया। शासन के तमाम निर्देश और संस्थान के खिलाफ एफआईआर होने के बावजूद वे इसे खाली कराने में नाकाम रहे। इतना ही नहीं, उन्होंने संस्थान की कारगुजारियों के बारे में शासन को अवगत कराने की जहमत तक नहीं उठाई। डीएम ही जिले का सबसे बड़ा अधिकारी होता है और इस लिहाज से इस प्रकरण में हुइ चूक की जिम्मेदारी भी उसकी ही बनती है। वहीं इस प्रकरण में एक पूर्व डीपीओ नरेंद्र प्रताप सिंह का नाम भी सामने आ रहा है जो करीब पांच साल तक देवरिया मे तैनात रहे। रिपोर्ट में यह इशारा भी किया गया है कि जिले के सभी अधिकारियों को संस्थान के बारे में सभी जानकारियां होने के बावजूद इसे बंद नहीं कराया जा सका। इससे साफ है कि यह संस्थान किसी प्रभावशाली व्यक्ति के संरक्षण में चल रहा था।

पुलिस के पास नहीं था विकल्प

जांच में यह भी सामने आया है  कि इस संस्थान में बच्चों को भेजना देवरिया पुलिस की मजबूरी बन गयी थी। दरअसल देवरिया में इस संस्थान को बंद करने के निर्देश तो दिए जाते रहे पर इसके स्थान पर कोई दूसरा संरक्षण गृह बनाने की प्रक्रिया शुरू नहीं की गयी। यह डीएम का जिम्मा था कि वे संस्थान को बंद करने के बाद उपजने वाले इस हालात से निपटने को नये संस्थान को शुरू करने की कवायद करते। इसके लिए बाकायदा विज्ञापन जारी किया जाता और भूमि आदि का बंदोबस्त कर शासन को अवगत कराया जाता। तत्पश्चात इसके लिए केंद्र सरकार और राज्य सरकार 60:40 के अनुपात में बजट आवंटित कर देती। जांच समिति के सामने पुलिस अधिकारियों ने कहा कि अक्सर खासी तादाद में बच्चे बरामद होने के बाद उनके पास उन्हें दूसरी जगह भेजने का कोई विकल्प नहीं था।

एक दर्जन से ज्यादा पत्र लिखे गये

सूत्रों की मानें तो देवरिया की इस दागी संस्था को बंद कराने और कोई अनुदान न देने को लेकर शासन द्वारा कारा को एक दर्जन से ज्यादा पत्र लिखे गये। साथ ही यह भी कहा गया कि संस्थान में हो रही गड़बडिय़ों के मद्देनजर इसका नाम कारा अपनी वेबसाइट से हटा दे। इसके बावजूद कारा ने इस पर कोई तवज्जो नहीं दी और विदेशियों को बच्चे एडॉप्ट कराता रहा। बीती 28 जुलाई को भी उसने एक दंपत्ति द्वारा संस्थान में रहने वाली एक किशोरी को एडॉप्ट कराने का पत्र भेजा था। हालांकि इस दरम्यान कारा ने इन तमाम दिक्कतों को देखते हुए संस्थान से सात बच्चों को शिफ्ट करने के निर्देश भी दिए थे। ये जानकारी जांच कमेटी को आरोपित गिरिजा त्रिपाठी और उसके पति ने पूछताछ के दौरान दी है। इससे अनुमान लगाया जा रहा है कि संस्थान से जिन सात नवजातों के गायब होने की चर्चा है, उन्हें भी एडॉप्शन के लिए दिया गया है। हालांकि यदि इसकी पुष्टि नहीं होती है तो आरोपितों के खिलाफ नवजातों को बेचने का मामला भी दर्ज किया जा सकता है।

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