GORAKHPUR: गोरखपुर, जिसका इतिहास कई मायने में शहर को अलग लाइन में लाकर खड़ा कर देता है। धार्मिक ग्रंथ छापने वाली गीता प्रेस ने जहां लोगों का ध्यान अपनी ओर खींचा, वहीं नाथ संप्रदाय का गोरक्षनाथ मंदिर अपनी अरसों से चमक बिखेरे हुए हैं। यही पास के चौरीचौरा में अंग्रेजों को छकाने और नाकों चने चबवाने वाले आजादी के परवाने हस्ते-हस्ते सूली चढ़ गए। इतना ही नहीं दुनिया के सबसे लंबे प्लेटफॉर्म होने का तमगा भी गोरखपुर के खाते में ही है। पूर्वाचल के लाखों मरीजों को राहत देने वाला मेडिकल कॉलेज भी यहीं मौजूद है। अब एम्स और फर्टिलाइजर जैसे संस्थान इसकी सूरत में चार चांद लगाने के लिए दस्तक दे रहे हैं। इन सब उपलब्धियों के बीच कुछ और चीजे मिल जाएं, तो शहर विकास के पंखों से उड़ान भरने लगेगा और यहां के लोगों को न सिर्फ रोजगार बल्कि और भी कई सौगातें मिल जाएंगी।

पास में यह है खास

गोरखनाथ मंदिर

गोरखपुर का गोरखनाथ मंदिर हिंदू आस्था का प्रमुख केंद्र है। आज भी देश के किसी भी कोने में रहने वाले लोग हों, लेकिन जैसे ही उनके सामने गोरखपुर का नाम आता है सबसे पहले गोरखनाथ मंदिर का प्रतिबिंब उनके सामने उभरता है। गोरक्षनाथ मंदिर गोरखपुर में योग साधना का क्रम प्राचीन काल से अनवरत चलता आ रहा है। गोरखपुर में बना यह मंदिर त्रेतायुग का है। शास्त्रों की माने तो ज्वालादेवी के स्थान से निकलकर अपने लिए तपस्थली खोजते हुए राप्ती के तट पर पहुंचे। मंदिर कार्यालय के प्रभारी द्वारिका प्रसाद तिवारी का कहना है कि उस समय यह पूरा क्षेत्र जंगल हुआ करता था। गुरु गोरक्षनाथ त्रेतायुग में यहां आए और तपस्या शुरू कर दी। जिस स्थान पर उन्होंने तपस्या की आज उसी स्थान पर मंदिर बना है। आज जो यह भव्य मंदिर दिखता है वह महंत दिग्विजयनाथ की देन है। 1968 में महंत दिग्विजयनाथ ने इस मंदिर के नव निर्माण का कार्य शुरू किया जो 1994 तक चला। द्वारिका प्रसाद तिवारी का कहना है कि जो पुराना मंदिर है वह आज भी है। वर्तमान समय में नया मंदिर परिसर लगभग 52 एकड़ में फैला हुआ है।

ाथ संप्रदाय

संप्रदाय से तात्पर्य एक ऐसी परंपरागत धार्मिक संस्था से है, जिसकी परंपरा और शिक्षा एक आचार्य अपने दूसरे आचार्य और शिष्य परंपरा से आगे बढ़ता है। भारतीय दर्शन में नाथ संप्रदाय बहुत ही पुरानी है और इसका भारतीय संस्कृति में बहुत ही महत्वपूर्ण है। भारतीय इतिहासकारों का कहना है कि नाथ संप्रदाय की उपस्थित 11वीं शताब्दी से मिलती है। वैसे एक अन्य तथ्य को देखे तो नाथ संप्रदाय शिव के अंश के रूप में जाने जाते हैं और इसमें शिव की पूजी की परंपरा भी है। कहा जाता है कि यह गुरु गोरक्षनाथ की पथ स्थली होने के कारण गोरखपुर का और अधिक महत्व बढ़ गया है। गुरु गोरक्षनाथ को ही नाथ संप्रदाय को फैलाने के लिए सबसे अधिक माना जाता है।

गलती सुधारने के लिए बना दिया गीता प्रेस

92 साल पहले एक व्यक्ति ने श्रीमदभगवत गीता की गलतियां सुधारने के लिए ठानी और आज यह गीता प्रेस हर साल हजारों लोगों की जीवन की गलतियां सुधार रही है। 1923 में एक कमरे के मकान से शुरू हुआ गीता प्रेस आज लगभग साढ़े पांच एकड़ के विशाल कैंपस में तब्दील हो गया है। गीता प्रेस के ट्रस्टी ईश्वर प्रसाद पटवारी का कहना है कि मूलत: राजस्थान के रहने वाले जयदयाल गोयंदका कोलकाता में रहते थे। वहां से एक प्रकाशन की द्वारा गीता का प्रकाशन होता था, जिसमें तमाम गलतियां छपती थी, जिसको सही कराने के लिए उन्होंने प्रकाशक से संपर्क किया, लेकिन प्रकाशक ने साफ-साफ कह दिया कि अगर शुद्ध छपवाना है तो खुद अपना प्रेस खोल लें। प्रकाशक के इस बात से बेहद दुखी गोयंदका ने अपने सहयोगियों के साथ मिलकर 'गीता प्रेस' की लगाने की रणनीति बनाई, जिसका 23 अप्रैल 1923 को गीता प्रेस से प्रकाशन का कार्य शुरू हो गया।

दुनिया का सबसे लंबा प्लेटफॉर्म

दर्जनों उपलब्धियां समेटे गोरखपुर के खाते में अक्टूबर 2013 में एक और उपलब्धि बढ़ गई। जनरल नॉलेज में विश्व का सबसे लंबे प्लेटफार्म के रूप में खड़गपुर स्टेशन की जगह गोरखपुर जंक्शन का नाम दर्ज हुआ। 6 अक्टूबर 2013 को बने इस लंबे प्लेटफॉर्म को देखने के लिए आज न सिर्फ भारतीय पर्यटक आते हैं, बल्कि विदेशी पर्यटक के लिए भी एक सेंटर ऑफ अट्रैक्शन हो गया है। गोरखपुर जंक्शन का प्लेटफार्म नंबर एक 1366 मीटर लंबा जो है, जिसका इनॉगरेशन तत्कालीन एनई रेलवे जीएम केके अटल के कार्यकाल में किया गया।

पूर्वाचल का इकलौता मेडिकल कॉलेज

बाबा राघवदास मेडिकल कॉलेज, पूर्वाचल में मेडिकल के लिए एकलौता संस्थान जहां एमबीबीएस, पीजी की पढ़ाई के साथ नेहरू चिकित्सालय में ओपीडी व इलाज की सुविधा मौजूद है। यहां इंसेफेलाइटिस जैसी घातक बीमारी के इलाज के लिए जेई व एईएस वार्ड, नवजात बच्चों के इलाज के लिए स्पेशल वार्ड, एमआरआई सेंटर, एक्स-रे, अल्ट्रासाउंड, डायलसिस, आईसीयू की सुविधा मौजूद है। यहां पड़ोसी देश नेपाल, बिहार व आस-पास जिले के हर रोज 3000 मरीजों का रजिस्ट्रेशन होता है। वहीं मेडिकल कॉलेज में ट्रामा सेंटर व ब्लड बैंक की सुविधा के साथ ही बच्चों के इलाज के लिए 500 बेड वाले वार्ड का निर्माण किया गया। वहीं, हाल में ही कैंसर विभाग में कोबाल्ट मशीन की सुविधा भी मौजूद है।

चौरीचौरा में चली थी आजादी की हवा

सिटी के चौरीचौरा का नाम भी इतिहास के पन्नों में दर्ज है। यहां 4 फरवरी 1992 में देशवासियों ने ब्रिटिश सरकार की एक पुलिस चौकी को आग लगा दी। इसमें अंग्रेजों के 22 पुलिस कर्मचारी जिंदा जल के मर गए थे। इस घटना को चौरीचौरा कांड के नाम से जाना जाता है। इसके बाद महात्मा गांधीजी ने चलाया जा रहे असहयोग आंदोलन को वापस ले लिया। पकड़े गए अभियुक्तों की पैरवी पंडित मदन मोहन मालवीय ने की और उन्हें बचाकर एक बड़ी सफलता हासिल की। इसके बाद इस जगह का एतिहासिक महत्व है और टूरिस्ट यहां पर भी घूमने के लिए जाते हैं।

यह बन जाए तो बने बात

चिडि़याघर

पूर्व मुख्यमंत्री वीर बहादुर सिंह के पुत्र फतेहबहादुर सिंह बसपा सरकार में वन व जंतु उद्यान मंत्री बने। 2007 में इन्होंने चिडि़याघर के लिए वन प्रभाग को प्रस्ताव बनाने का निर्देश दिया। वन विभाग ने 124.274 एकड़ जमीन पर 88.8 करोड़ की योजना बनाकर प्रदेश सरकार के पास अनुमति के लिए भेज दिया। प्रदेश सरकार ने इस पर मुहर लगा दी, जिसके बाद सेंट्रल जू अथॉरिटी ने कुछ शर्तो के साथ इसे मंजूरी दे दी। 18 मई 2011 में इसके निर्माण का काम शुरू हुआ। 88 करोड़ के इस प्रोजेक्ट में 20 करोड़ रुपए मिट्टी भराई में खर्च कर दिए गए। बसपा सरकार बदलते ही इसकी लागत दोगुनी हो गई। कार्यदायी संस्था काम कराती रही और पैसे भी खर्च होते रहे। बीते साल धनाभाव में काम बंद हो गया। जानकारों की मानें तो इससे जो भी काम किया है वह नाकाफी है। सरकार को एक बार फिर रिवाइज एस्टीमेट से पैसे भेजने पड़ेंगे, जिसके बाद ही इसका काम पूरा हो सकेगा।

रामगढ़ताल का सुंदरीकरण

राष्ट्रीय झील संरक्षण योजना के तहत अप्रैल 2010 में परियोजना शुरू की गई। 124.32 करोड़ की लागत का बजट बनाया गया। तीन साल में पूरी होने वाली योजना अफसरों की लापरवाही से लंबित होती चली गई। इस परियोजना में रामगढ़ताल को साफ सुथरा बनाने के साथ ही सीवेज पंपिंग स्टेशन, दो सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट, सवा तीन किलोमीटर बांध का निर्माण, पांच किलोमीटर बने बांध की मरम्मत, ओपेन थियेटर, दो हाईमास्ट, दो ओमेगा आईलैंड सहित कई काम होने है, लेकिन शुरू होते ही यह योजना धराशाई हो गई। इसका खर्च बढ़कर 196.57 करोड़ तक पहुंच गया। रामगढ़ताल को मुंबई के मरीन ड्राइव जैसा डेवलप किया जा रहा है। सजे हुए बाजार में सैकड़ों लोगों को रोजगार मिला है। कुछ इसी तर्ज पर रामगढ़ताल को डेवलप किया जा सकता है। इसका सबसे बड़ा फायदा यह होगा कि टूरिज्म के नक्शे पर मिटने की राह पर चल रहे गोरखपुर को व‌र्ल्ड फेम मिल जाएगा।

गैस बॉटलिंग प्लांट

इंडियन ऑयल का बॉटलिंग प्लांट की नींव 2014 में ही पड़ चुकी है, लेकिन यहां के लोगों को अब भी बॉटलिंग प्लांट शुरू होने का इंतजार है। गोरखपुर में स्थापित होने वाला बॉटलिंग प्लांट यूपी का अब तक का सबसे बड़ा बॉटलिंग प्लांट है। लगभग 120 करोड़ रुपए की लागत से बनने वाले इस बॉटलिंग प्लांट के लिए गीडा में जमीन आवंटित हो चुकी है। केंद्रीय मंत्री धर्मेद्र प्रधान ने इसका शिलान्यास किया। मगर दो साल के बाद भी लोगों को इसके शुरू होने का इंतजार है। अब जिम्मेदारों को कहना है कि गीड़ा में बनने वाले इस बॉटलिंग प्लांट का निर्माण कार्य 2018 तक पूरा कर लिया जाएगा और हर रोज 61 हजार से ज्यादा अधिक सिलेंडर भरे जाएंगे। अभी तक यहां पर लखनऊ और वाराणसी से सिलेंडर आता है।

चीनी मिल

गोरखपुर और आसपास के इलाकों में गन्ने की खेती होती थी। इसकी वजह से चीनी मिलों की भी तादाद काफी ज्यादा थी। सिर्फ गोरखपुर और महाराजगंज में करीब 75 से ज्यादा चीनी मिलें मौजूद थीं, जो लगातार बंद होती चली गई। इसमें महराजगंज में जहां 42 चीनी मिलें थीं, वहीं गोरखपुर में इनकी तादाद 33 थी। गन्ने बुआई की बात की जाए तो गोरखपुर में 5994 हेक्टेयर में गन्ना बोया जाता था, जबकि वहीं महराजगंज में 21898 हेक्टेयर में गन्ने की खेती होती थी। इसकी वजह से कई किसानों के घरों में चूल्हे जलते थे, लेकिन ज्यों-ज्यों चीनी मिलें बंद होती चली गई, इनके रोजगार के अवसर भी कम होते चले गए। थक हारकर किसानों से जीवन निर्वाह के लिए दूसरे धंधे अपना लिए। अगर चीनी मिलें दोबारा खुल जाती, तो गन्ने की मिठास से कई घरों के चूल्हे जलने लगते।

हथकरगा उद्योग

गोरखपुर की हथकरघा उद्योग में अपनी एक अलग पहचान है। मुगल से अंग्रेजों के शासन काल तक गोरखपुर के बने कपड़े अपना अलग वजूद रखते थे। आजादी के बाद से सरकार की उपेक्षा का शिकार होने से आज इस क्षेत्र से जुड़े लोगों की हालत बद से बदतर हो गई है। लगातार बंद होते जा रहे हैंडलूमों को चलाने के लिए अब बुनकरों को सरकारों से काफी उम्मीद है। वह उम्मीद लगाए हैं कि शायद सरकार की नजर उन पर पड़े और बदहाली के कगार पर खड़ा गोरखपुर हैंडलूम उद्योग अपनी खोई चमक वापस पा सके। बुनकर उद्योग से 60 हजार परिवार जुड़े हैं। इनके सामने इन दिनों रोजी- रोटी का संकट आने लगा है। आज सैकड़ों लोग हैंडलूम उद्योग से अपना मुंह मोड़ रहे हैं। अगर सरकार इस ओर नजरे इनायत कर दे तो शायद गोरखपुर जिले के 60 हजार परिवार को एक नई पहचान मिल जाएगी।

जूट मिल

प्रदेश की जूट मिलों की जब बात होती है तो इसमें गोरखपुर का नाम भी जरूर लिया जाता है। प्रदेश में अब सिर्फ एक ही जूट मिल बची है, जो गोरखपुर के सहजनवां में स्थित है। वह भी सरकार के दम पर नहीं बल्कि प्राइवेट दम पर चल रही है। 1935 में बनी महाबीर जूट मिल 55 एकड़ में फैली है। इसे कोई सरकारी सहयोग नहीं मिल रहा है, जबकि यहां कोलकाता के बाद देश का सबसे ज्यादा जूट का उत्पादन होता है। प्रदेश की दूसरी जूट मिल कानपुर में थी, जोकि 2003-04 में बंद हो गई। अगर यहां की जूट मिलों पर भी सरकार नजरे इनायत कर दे, तो यहां का नजारा भी दूसरा होगा और बड़ी तादाद में लोगों के लिए रोजगार के दरवाजे खुल जाएंगे।