निगाहें जहां तक जा रही थी, सबकुछ मैला-मैला दिख रहा था। कुछ देर पहले तक यहा रौशनी थी, जगमगाहट थी और थे श्रद्धालु। चार दिवसीय छठ अनुष्ठान के अंतिम दिन गंगा घाटों पर शहर का जनसैलाब उमड़ पड़ा, सूर्य को अघ्र्य देने के लिए। सबने पूरी निष्ठा और अनुष्ठान के साथ भगवान सूर्य और छठी मईया की पूजा की। गंगा की आरती उतारी। घाट तक को पूजा, तीन दिनों तक हमने पूरी ईमानदारी और मेहनत से पूरे शहर को और अपने घाटों को दुल्हन की तरह सजाया। सड़क हो या घर या फिर गंगा घाट सब जगह से गंदगी को खदेड़ दिया, लेकिन चौथे दिन वापस अपनी फितरत पर आ गए।

तड़क-भड़क गायब हो गई

बुधवार को उगते सूर्य को अघ्र्य देने के बाद छठ पर्व का महानुष्ठान समाप्त हो गया। सुबह के नौ साढ़े नौ बजते-बजते तमाम घाट वीरान हो गए। कुछ ऐसे, मानो यहां कुछ हुआ ही ना हो। हालांकि कुछ निशानियां थीं, जो बता रही थी कि अभी कुछ लम्हा पहले ही यहां से कारवां गुजरा था। दोपहर के 1.30 बजे हम महेन्द्रु घाट पहुंचे। तीन से साढ़े तीन घंटे पहले इस घाट पर जो तड़क-भड़क थी, वह गायब थी। अभी इसी घाट पर गंदगी का साम्राज्य है। जहां तक दिख रहा था केले के छिलके, नारियल की जटा, संतरे और गगरा नीबू के छिलके, मन्नत पूरी होने के बाद काटे गए बाल, सबकुछ बिखरा पड़ा था घाट पर।

'मेरा पटना, मेरी गंगा'

काली घाट पर अब भी एक पोस्टर चिपका हुआ है। पोस्टर पर लिखा है 'गंगा में पॉलीथिन प्रवाहित ना करें-मेरा पटना मेरी गंगा'। लेकिन यह स्लोगन महज स्लोगन साबित हुआ। क्योंकि इस घाट पर हर ओर पॉलीथिन ही पॉलीथिन दिखाई दे रही है। पटना कॉलेज घाट जहां सुबह तिल रखने मात्र की जगह नहीं थी, वहां दोपहर को करीब सवा दो बजे सन्नाटा फैला हुआ था। यहां भी श्रद्धालुओं द्वारा फैलाई गई गंदगी नजर आ रही थी। फलों के छिलके, पॉलीथिन आदि ऐसे बिखरे पड़े थे, मानो यह घाट कभी श्रद्धा से पूजा ही नहीं गया हो। चाहे वह बुद्ध घाट हो या फिर गांधी घाट। हमारी आस्था पूजा के घंटों के साथ निर्धारित होती है और पूजा का टाइम खत्म होते ही हम अपनी आस्था से भी ऊब जाते हैं।

तो, कैसे भूल गए हम

गंगा पहले से ही पॉल्यूटेड है, यह बात किसी को बताने या समझाने की जरूरत नहीं है। ना ही हम आंकड़ों से यह बताने की कोशिश कर रहे हैं कि गंगा में कितना मरकरी बढ़ गया है या हमारी नादानियों के कारण गंगा कितनी नाराज हो चुकी हैं और हमें छोड़कर जा रही हैं। गंगा तो मैली हो ही चुकी हैं। उसके घाटों की स्थिति भी बेहद खराब है। दो दिन पहले तक डिस्ट्रिक्ट एडमिनिस्ट्रेशन से लेकर आमलोग तक गंगा घाटों को चमकाने में लगे हुए थे। पर, डिस्ट्रिक्ट एडमिनिस्ट्रेशन ने घाटों को पूजा योग्य बनाने में लाखों-लाख रुपए खर्च कर दिए।

इसके बावजूद हम मीन-मेख निकालते रहे कि फलां घाट पर पैर नहीं रखा जा सकता है। फलां घाट पूजा के योग्य नहीं। लेकिन जब मेहनत कर ऐसे घाटों को हमने, आपने और डिस्ट्रिक्ट एडमिनिस्ट्रेशन ने पूजा के लायक बनाया, तो यह बात महज कुछ ही घंटो में दिमाग से उतर कैसे गई। शायद हम और आप दोनों ही दोषी हैं। परम्पराओं का निर्वहन करना हमें भलीभांति आता है, लेकिन अपनी धरोहरों के साथ हम न्याय नहीं कर पा रहे हैं। अगर ऐसा होता तो जिस कलेक्टेरिएट घाट पर बीस से भी ज्यादा सालों से छठ पूजा होती थी, वो इस बार छठ व्रतियों के लिए तरस नहीं जाता। हमने अपनी गलतियों की तरफ ध्यान देना छोड़ दिया है।