GORAKHPUR : मेहनत करने वाले अपनी तकदीर खुद बनाते हैं। ये कहावत सिटी के कुछ लोगों पर बिलकुल सटीक बैठती है। मध्यमवर्गीय परिवार में जन्म लेने के बावजूद उन्होंने हालातों के आगे घुटने नहीं टेके, संघर्ष किया और अपना एक अलग मुकाम हासिल किया। उनकी कहानी 70 के दशक में सलीम-जावेद की कलम से निकली एक आम आदमी की कहानी से मिलती-जुलती है। तमाम परेशानियों से जूझते हुए किस तरह उन्होंने हासिल की अपनी मंजिल और हो गए हाई-फाई, पढि़ए उन रणबांकुरों की दास्तां।

तकदीर पर 'अजय' की हुई विजय

शहर के नामी स्कूल आरपीएम एकेडमी के ओनर अजय शाही की कहानी किसी फिल्म से कम नहीं है। क्फ् साल की उम्र में ही पिता का सिर से हाथ उठ गया। ख् साल बाद दादा भी गुजर गए। इतनी छोटी उम्र में ही उनके हाथों में ख् छोटे भाई और ख् बुआ की जिम्मेदारी आ गई। जब अजय ने इस जिम्मेदारी का बोझ उठाया तब उनके पास केवल कौड़ीराम में एक छोटा सा मकान था और आधा एकड़ से भी कम जमीन। उन्होंने आर्थिक मुसीबतों को झेलते हुए हाई स्कूल, इंटर किया। इसके बाद ग्रेजुएशन और मास्टर्स की डिग्री लेने गोरखपुर आ गए। डीडीयू में पढ़ाई करते और घर का खर्च चलाने के लिए यूनिवर्सिटी की कैंटीन चलाते। मास्टर डिग्री लेने के बाद उन्होंने सेंट एंड्रयूज से लॉ की डिग्री ली। सपने बड़े थे। बचपन से ही वे आईएएस बनना चाहते थे। अपने इसी सपने को पूरा करने वे इलाहाबाद चले गए। ब् साल तक तैयारी की। सीडीएस और एलआईसी (डीओ) में सेलेक्शन भी हुआ, लेकिन इसी बीच पारिवारिक जिम्मेदारियां आ गई। परिवार के आगे उन्होंने अपने सपने को पीछे छोड़ दिया। गांव वापस आ गए। क्99ख् में अपनी पुश्तैनी जमीन का एक छोटा सा हिस्सा बेचकर उन्होंने दो कमरे में अपने दादाजी के नाम पर हॉस्टल सहित स्कूल डाला। क्फ् बच्चों ने एडमिशन लिया। इन्हीं दो कमरों में ये बच्चे रहते और पढ़ते। दिन भर अजय इन बच्चों को पढ़ाने में लगे रहते। समय बीतता गया। वे दिन रात मेहनत करते गए। आज आरपीएम की शहर में म् ब्रांच हैं। 7000 बच्चे हर साल पढ़कर आगे बढ़ रहे हैं। जल्द ही वे शहर का सबसे खूबसूरत और बड़ा स्कूल सूरजकुंड में लाने वाले हैं। अजय ने मुसीबतों से लड़कर, किस्मत को हराकर यह बात साबित कर दी कि उड़ान पखों से नहीं, हौसलों से होती है।

'पवन' के वेग में उड़ी मुश्किलें

गोरखपुर से क्ख् किलोमीटर दूर एक गांव है भखरा। इस गांव के एक मध्यमवर्गीय परिवार में पैदा हुए पवन दुबे सरस्वती ग्रुप ऑफ कॉलेजेज के मालिक हैं। कुदरत ने तो उन्हें एक प्राइमरी टीचर के घर में पैदा किया, लेकिन उन्होंने अपनी किस्मत से लड़कर एक नई नजीर तैयार की। 9 भाई-बहनों में सबसे छोटे पवन को बचपन से पढ़ने का बहुत शौक था। आर्थिक स्थिति बेहतर न होने के कारण उनकी पूरी पढ़ाई सरकारी स्कूल में हुई। डीडीयू से बीएससी करने के बाद वे प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी करने लगे। क्997 में सेक्शन ऑफिसर एजी(एकाउंटेंड जनरल) की परीक्षा पास की, लेकिन ज्वाइन नहीं किया। सीडीएस क्वलीफाई किया। 7 अलग-अलग बैंकों के पीओ एग्जाम को क्वालीफाई किया लेकिन ज्वाइन कहीं नहीं किया, क्योंकि पवन का लक्ष्य कुछ और ही था। सन ख्000 में परिवारवालों ने शादी के लिए जोर देना शुरू किया तो उन्हें लगा कि नौकरी करना जरूरी है। उन्होंने एसबीआई में बैंक पीओ की पोस्ट पर ज्वाइनिंग ली। वे एक सामान्य जिंदगी नहीं जीना चाहते थे, यही कारण था कि उन्हें बैंक की नौकरी भी रास नहीं आ रही थी। ख्00भ् में उन्होंने पैतृक जमीन नंदापार जैतपुर में एक कॉलेज की नींव रखी। ख्008 में उन्होंने यह डिसाइड कर लिया कि उनके जीवन का लक्ष्य कुछ और है और उन्होंने बैंक की नौकरी छोड़ दी। सन ख्00भ् में म् कमरे और क्ख्7 बच्चों से शुरू हुआ सरस्वती देवी महाविद्यालय आज 9 ब्रांच तक पहुंच चुका है। इस ग्रुप से ख्0 हजार स्टूडेंट हर साल अपना करियर संवार रहे हैं। पवन आज इस सफलता का श्रेय अपने भाई प्रदीप, संजय, आशुतोष अैर सत्यप्रकाश को देते है, लेकिन उनके दोस्त इस ऊंचाइयों को उनकी दिन रात की मेहनत बताते हैं।

संघर्ष की मिसाल बने 'प्रतीक'

यह एक ऐसे बच्चे की कहानी है जिसने नन्हीं सी उम्र में ही बहुत कुछ सहा लेकिन चुप रहा। कभी अपनी किस्मत को नहीं कोसा, उनसे लड़ा और जीता। ख्म् साल के प्रतीक आज शहर के सबसे नामी सीए कोचिंग सिंघानिया क्लासेस के डायरेक्टर हैं। प्रतीक बचपन से ही पढ़ने में बहुत होशियार थे, लेकिन उनके घर की आर्थिक स्थिति बेहतर नहीं थी। जब वे ग्यारहवीं क्लास में थे, तभी उनकी मां को पैरालेसिस और पापा को आर्थेराइटिस हो गई। हर दिन मां-बाप की बीमारी में इतने पैसे जाने लगे कि प्रतीक दाने-दाने के लिए मोहताज हो गए। क्म् साल की उम्र में ही प्रतीक के कंधों पर घर की जिम्मेदारी आ गई। पढ़ाई छोड़ प्रतीक तमिलनाडु के इरोड में रहने वाले अपने रिश्तेदार के यहां नौकरी करने चले गए। हर महीने ख्भ्00 रुपए वेतन मिलता। दिन में काम करते और रात में पढ़ाई। एक साल तक नौकरी करने के बाद प्रतीक को लगा कि वे अपना जीवन बर्बाद कर रहे हैं। उन्होंने अपने पापा से इच्छा जाहिर की कि वे इंजीनियर बनना चाहते हैं। पापा ने आर्थिक परिस्थितियों का हवाला देते हुए मना कर दिया, लेकिन प्रतीक नौकरी छोड़ गोरखपुर आ गए। उनके एक मुंहबोले जीजा ने सलाह दी कि सीए कर लो। इंजीनियरिंग से कम पैसे की पढ़ाई है। पैसे तो जेब में थे नहीं तो मजबूरी में प्रतीक ने सीए की तैयारी शुरू कर दी। फार्म भी कर्जे के पैसों से भरा। मेहनत रंग लाई और प्रतीक ने सीए का एंट्रेंस एग्जाम सीपीटी क्वालिफाई कर लिया। बस क्या था, जीवन में राह मिल गई। उन्होंने सीपीटी की कोचिंग पढ़ानी शुरू कर दी। खुद पढ़ते और पढ़ाते। उनकी मेहनत ही थी कि ख्ख् साल की उम्र में सीए की डिग्री मिल गई। आज प्रतीक शहर के ही नहीं देश के नामी सीए के टीचर हैं। तीन दिन वे गोरखपुर में रहते हैं और तीन दिन दिल्ली में क्लास लेते हैं। अभी तक वे क्0 हजार बच्चों को ट्यूशन पढ़ा चुके हैं और सैकड़ों बच्चों को सीए बना चुके हैं।

जिम्मेदार अखबार

आई नेक्स्ट का सिटी के यूथ में बहुत क्रेज है। आई नेक्स्ट यूथ का सबसे पसंदीदा अखबार बन चुका है। सबसे बड़ी बात यह है कि आई नेक्स्ट केवल खबर ही पब्लिश नहींकरता, बल्कि उसकी तह तक जाता है। फिर चाहे वह सामाजिक सरोकार का मामला हो या प्रशासन का। इसके लिए आई नेक्स्ट को बहुत शुभकामनाएं।

विजय बहादुर यादव

ग्रामीण विधायक गोरखपुर