नई दिल्ली (पीटीआई)। आईएलओ इंडिया वेज रिपोर्ट के अनुसार, पिछले दो दशकों के दौरान भारत की सालाना औसत जीडीपी दर 7 प्रतिशत रही है। ऐसी अर्थव्यवस्था के बावजूद यहां कम वेतन दिया जाता है और इसमें काफी भेदभाव भी नजर आता है। इसमें कहा गया है कि भारतीय अर्थव्यवस्था के विकास के कारण गरीबी में कमी आई है। उद्योग और सर्विस सेक्टर में श्रमिकों के अनुपात में रोजगार के क्षेत्र में हल्का बदलाव ही आया है। 47 प्रतिशत मजदूर अब भी कृषि क्षेत्र में ही काम कर रहे हैं। रिपोर्ट में कहा गया है कि अर्थव्यवस्था में अब भी अनौपचारिकता और सेगमेंटेशन का सामना कर रही है। 2011-12 के आंकड़ों के मुताबिक, 51 प्रतिशत से ज्यादा लोग जो भारत में काम कर रहे हैं वे स्व नियोजित हैं। ज्यादा से ज्यादा 62 प्रतिशत लोग बतौर कैजुअल वर्कर वेतन पर काम करते हैं। इसमें कहा गया है कि संगठित क्षेत्र में रोजगार बढ़ा है लेकिन ज्यादातर काम कैजुअल या इनफाॅर्मल नेचर का है।

भारत में अब जटिल है न्यूनतम वेतन लागू कराना
1948 में मिनिमम वेल एक्ट के जरिए सबसे पहले न्यूनतम वेतन लागू करने वाले देशों में भारत शामिल था। लेकिन रिपोर्ट में यह पाया गया है कि सभी कामगारों को वेज के मुताबिक वेतन देने में अब यह असफल रहा है। एक अध्ययन के मुताबिक भारत में न्यूनतम मजदूरी लागू कराना थोड़ा जटिल है। न्यूनतम मजदूरी लागू कराने का काम राज्य सरकारों का है। रोजगार के तौर पर अधिसूचित मद में देश भर में 1709 विभिन्न दरें हैं। ऐसा माना जा रहा है कि 66 प्रतिशत कामगारों के लिए यह लागू है लेकिन उन्हें यह पूरी तरह मिल नहीं पाता। 1990 में राष्ट्रीय न्यूनतम वेतन लागू किया गया था जिसे 2017 में बढ़ाकर 176 रुपये प्रतिदिन कर दिया गया था। लेकिन इसे कानूनन बाध्य नहीं बनाया गया है। हालांकि 1970 से ही इसे कानूनी तौर पर बाध्य बनाने पर लगातार चर्चा हो रही है। 2009-10 के एक आंकड़ों के मुताबिक 15 प्रतिशत वैतनिक कामगार और 41 प्रतिशत कैजुअल कामगारों को राष्ट्रीय न्यूनतम वेतन से कम पगार दी जा रही थी।

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