क्योंकि मैं हूं एक रियल थियेटर आर्टिस्ट

-थियेटर के लिए ग्रांट देने के बजाय कुछ काम करे सरकार

-थियेटर, फिल्म एंड टेलीविजन आर्टिस्ट राकेश बेदी से मुलाकात

चश्मे बद्दूर जैसी फेमस मूवी के एक्टर और श्रीमान-श्रीमती व यस बॉस जैसे सीरियल में पब्लिक को हंसाने व गुदगुदाने वाले फेमस कलाकार राकेश बेदी मंगलवार को प्रयाग नगरी में थे। यहां उन्होंने पहली बार संगम को करीब से देखा और महसूस किया और वेंटिलेटर पर चल रहे थियेटर युग को जिंदा रखने के लिए नाटक प्ले किया लेकिन नाटक प्ले करने से पहले उन्होंने मीडिया के सवालों का जवाब दिया और अपने मन की बात शेयर की। उन्होंने क्या कहा आईए बताते हैं

थियेटर में आज भी कलाकारों की आत्मा बसती है। थियेटर कल्चर का इतिहास तीन हजार साल पुराना है। दर्शकों से डायरेक्ट इंटरैक्सन, लाइव परफार्मिग का अलग ही मजा है। पर्दे पर और टेलीविजन में वो बात कहां। लेकिन दुख होता है, जिस थियेटर ने एक से बढ़ कर एक कलाकार दिए आज वो वेंटिलेटर पर है। मैं एक सच्चा थियेटर आर्टिस्ट हूं, इसलिए थियेटर के लिए टेलीविजन की दुनिया से दूरी बनाई और नाटक 'मेरा वो मतलब नहीं था' लिखा, जो एक बार फिर लोगों को थियेटर की ओर खींचने में सफल है।

जिस तरह से थियेटर और थियेटर कलाकार हाशिये पर हैं, उन्हें मेन स्ट्रीम में लाने के लिए क्या सरकार कुछ कर रही है?

सरकार को क्या पड़ी है कि वो थियेटर की दुनिया को आबाद करने के लिए प्रयास करे और थियेटर कलाकारों को प्रमोट करे। ज्यादा आवाज उठती है तो सरकार थियेटर के लिए ग्रांट दे देती है। लेकिन ग्रांट का यूज सही तरीके से हो रहा है कि नहीं, इसकी मॉनिटरिंग कौन करता है। गवर्नमेंट को ग्रांट देने के बजाय हर शहर में थियेटर खोलने चाहिए। शो के लिए संस्थाओं की मदद करनी चाहिए और पब्लिसिटी के लिए 75 परसेंट छूट की व्यवस्था करनी चाहिए। क्योंकि आज के दौर में शो के लिए पब्लिसिटी बहुत जरूरी है, जो सबसे ज्यादा महंगी है।

थियेटर को हाशिए पर ले जाने के लिए कौन है जिम्मेदार?

इसके लिए ऑडियंस और कलाकार दोनों जिम्मेदार हैं। मेरा मानना है कि थियेटर कलाकारों को इंटरटेनमेंट का विशेष ध्यान रखना चाहिए, जो ऑडियंस को बांधे रखे, पकड़े, इंटरैक्ट करे, ऐसा कुछ होना चाहिए।

ये जो है जिंदगी, श्रीमान-श्रीमती और यस-बास सीरियल के बाद टेलीविजन की दुनिया से 2009 से जैसे गायब ही हो गए। क्या वजह रही?

इन करेंट टाईम टेलीविजन की दुनिया काफी डिमांडिंग हो गई है, जो बहुत कुछ मांगता है। लगातार टेलीविजन में एक्टिव रहने के बाद मैने 2009 में थोड़ा ब्रेक लिया और यही वो समय था, जब मेरे मन में थियेटर की दुनिया में फिर से लौटने का विचार आया और कहानी लिखने बैठ गया। करीब तीन-चार साल की मेहनत के बाद तैयार हुआ 'मेरा वो मतलब नहीं था' जिसे मैने खुद लिखा है। अनुपम खेर और नीना गुप्ता जैसे कलाकारों ने भी मेरा वो मतलब नहीं था के जरिये एक बार फिर थियेटर आर्ट की ओर मूव किया है।

आपने थियेटर के लिए रिस्क लिया और टेलीविजन की दुनिया से दूरी बनाई, क्या पब्लिक थियेटर को पसंद कर रही है?

बिल्कुल, पब्लिक पसंद नहीं बहुत पसंद कर रही है। आज भी पब्लिक थियेटर शो को पसंद करती है। लेकिन शो ऐसा हो जो इंटरटेन करे, पब्लिक को इंटरैक्ट करे और उसे बांधे रखे। 'मेरा वो मतलब नहीं था' इन सारी खूबियों से परिपूर्ण है। सात मार्च से अब तक 15 शो हो चुके हैं, जिनमें हर शो की एडवांस बुकिंग हुई है। नाटक की कहानी फ‌र्स्ट लव यानी प्यार पर बेस है। जो ये बताती है कि इंसान भले ही बूढ़ा हो जाए, लेकिन प्यार की चिंगारी कभी बुझती नहीं है।