लेकिन जब पिछले हफ़्ते मुस्लिम ब्रदरहुड संगठन की राजनीतिक शाखा ने मिस्र के लोगों का आह्वान किया कि वे टैंकों से उनकी क्रांति छीनने वालों के ख़िलाफ़ उठ खड़े हों, जब सेना और इस्लामी लोगों के बीच संघर्ष में दर्जनों लोग मारे गए और जब अल-अज़हर के मुख्य शेख़ ने गृह युद्ध का ऐलान किया तो एक परेशान कर देने वाला सवाल हवा में तैर रहा है.

क्या मिस्र एक धर्मयुद्ध की दिशा में बढ़ रहा है जो इस्लामी लोगों द्वारा सरकार के ख़िलाफ़ लड़ा जाएगा?

अल्पसंख्यक अतिवादी

यह उम्मीद करने के लिए बहुत सी वजह हैं कि अरब में सबसे ज़्यादा आबादी वाला देश राष्ट्रपति मोहम्मद मुर्सी को हटाए जाने के बाद बड़े पैमाने पर भड़के संघर्ष और कट्टर धार्मिक हिंसा से बच सकता है.

कई साल तक वहाँ दो बार रहने के बाद मुझे इसका सीधा अनुभव है कि मिस्र के लोग कितने भले, उदार और ज़्यादातर सहनशील हो     सकते हैं.

उनके बीच उग्रवादी भी हैं लेकिन वे अल्पसंख्यक हैं. हालांकि ज़ोर-शोर से प्रचारित किए जाने वाले उनके विचार ज़्यादातर आबादी का प्रतिनिधित्व नहीं करते.

मिस्र इससे भी ज़्यादा मुश्किल परिस्थितियों से निकल चुका है और इसे बहुत ज़्यादा समय नहीं हुआ है: 1981 में एक जिहादी गुट ने देश के राष्ट्रपति की हत्या कर दी थी और 1990 में एक इस्लामी उग्रवाद में 700 लोगों की हत्या कर दी गई थी जिसकी पराकाष्ठा 1997 में 58 विदेशियों के जनसंहार के साथ हुई थी.

लेकिन इस हफ़्ते की घटनाओं और हिंसक दौर को देखते हुए संभावित धर्मयुद्ध की आशंका से इनकार करना समझदारी नहीं होगी.

चलिए हम इसके घटकों पर नज़र डाल लेते हैं.

शहादत, बैनर और भाषणबाज़ी

समाचार पत्र अल-हयात के अनुसार धरने पर बैठे मुस्लिम ब्रदरहुड के एक दाढ़ी वाले समर्थक ने कहा, “हम हथियार उठाएंगे, हम धमाके करेंगे और राष्ट्रपति मुर्सी को फिर से उनके स्थान पर बैठाने से हमें मौत के सिवाय कोई और नहीं रोक सकता.”

भीड़ में छोटी संख्या में युवा “शहादत” लिखा कफ़न पहने दिखने लगे हैं. कुछ लोगों का कहना है कि यह नाटकीयता यह दिखाने के लिए है कि वह एक क्लिक करें चुने हुए इस्लामी राष्ट्रपति को सत्ता में लाने के लिए कहां तक जा सकते हैं.

मुर्सी को हटाए जाने के बाद से कई इंटरनेट फ़ोरम बन गए हैं जो मिस्र की सेना से प्रतिशोध का आह्वान कर रहे हैं. सेना को “इस्लाम का दुश्मन” करार देते हुए पुलिस और सैनिकों को हमलों का निशाना बनाने का ऐलान किया जा रहा है, ठीक उसी तरह जैसे 1990 के उग्र दौर में मिस्र के दक्षिण में किया गया था.

ऐसी बातें अभी तक भाषणों और आकांक्षाओं तक ही सीमित हैं- हालांकि सिनाई में सुरक्षा बलों पर अक्सर हमले किए जाते रहे हैं.

मिस्र के मुख्य इलाके में दरअसल ख़तरा तभी होगा जब लोग इन बातों से प्रेरित होकर हिंसा पर उतर आएंगे.

उपलब्ध हथियार

वर्ष 2011 में तानाशाह सरीखे राष्ट्रपति होस्नी मुबारक को बाहर किए जाने के बाद से ही मिस्र में सुरक्षा की स्थिति ख़राब हुई है. लेकिन सीरिया, लीबिया, इराक़ और यमन के मुकाबले यहां अब भी निजी हथियार कम ही हैं.

फिर भी मिस्र का मुख्य क्षेत्र अवैध हथियारों से लबरेज़ लीबिया और सिनाई प्रायद्वीप के बीच में फंसा हुआ है.

पड़ोसी मुल्क लीबिया में कर्नल मुअम्मर गद्दाफ़ी के तख़्तापलट से उसके शस्त्रागार के दरवाज़े खुल गए और आग उगलने वाले ज़्यादातर हथियार सहारा में और पूर्वी लीबिया में सक्रिय जिहादी गुटों के हाथ पहुंच गए.

अप्रैल में आई संयुक्त राष्ट्र की एक रिपोर्ट में कहा गया, “लीबिया के गृह युद्ध के दौरान मुअम्मर गद्दाफ़ी के खिलाफ़ इस्तेमाल हथियार चिंताजनक दर से इलाके के दूसरे देशों में पहुंच रहे हैं.”

इसमें कहा गया कि इन हथियारों में छोटे हथियारों से लेकर बड़े विस्फोटक, बारूदी सुरंगें और लघु हवाई सुरक्षा प्रणाली शामिल हैं.

रिपोर्ट में कहा गया था कि मिस्र में इन हथियारों का पहुंचना उसकी आंतरिक सुरक्षा के लिए ख़तरे की बात है क्योंकि इनमें से बहुत से सिनाई में सरकार विरोधी विद्रोहियों के हाथ पड़ रहे हैं.

धार्मिक संघर्ष

मिस्र की आबादी के करीब 10% कॉप्टिक ईसाई हैं.

मुस्लिम बहुल देश में वे सामान्यतः सौहार्द के साथ रहते हैं लेकिन कुछ इस्लामी अतिवादी उन्हें बाहर कर देना चाहते हैं जैसे कि इराक की ज़्यादातर ईसाई आबादी को कर दिया गया है.

मिस्र के चर्चों और ईसाइयों पर छिट-पुट लेकिन घातक हमले होते रहे हैं और मिस्र के बहुत से ईसाइयों को मुर्सी सरकार की उनके समुदाय की रक्षा करने के प्रति प्रतिबद्धता को लेकर संदेह रहा है.

मुर्सी के अपदस्थ होने के बाद मुस्लिम ब्रदरहुड के समर्थकों को संदेह है कि इसके पीछे ईसाइयों का हाथ हो सकता है.

अगर मिस्र में जिहादी हिंसा शुरू होती है तो कॉप्टिक ईसाई आसान निशाना होंगे.

राजनीतिक हताशा

मध्य पूर्व के विश्लेषक एक बात पर पूरी तरह सहमत हैं कि चाहे राष्ट्रपति मुर्सी कितने ही नाकारा रहे हों लेकिन एक साल के बाद ही उनको जबरन बाहर किए जाने से इस्लामी लोगों को बहुत ख़तरनाक संदेश गया है.

ख़तरा इस बात का है कि वे यह मानने लगें कि पश्चिमी देशों द्वारा जिस लोकतांत्रिक प्रक्रिया का प्रचार किया गया वह उनके लिए नहीं है. इससे कुछ लोग बैलेट (वोट) के बजाय बुलेट (गोली) की तरफ़ मुड़ सकते हैं.

अल-कुद्स अल-अरबी के संपादक अब्देल बारी अत्वान कहते हैं, “सैन्य तख्तापलट यकीनन इस्लामी धारा में अतिवादियों को फ़ायदा पहुंचाएगा, ख़ासतौर पर मुस्लिम ब्रदरहुड में. यह अल-क़ायदा और दूसरे गुटों के तर्क को सही ठहराएगा जो लोकतंत्र को ख़ारिज करते हैं और इसे पश्चिम की उपज बताते हैं.”

बर्बाद होती अर्थव्यवस्था

ये आख़िरी लेकिन कम महत्वपूर्ण बात नहीं है कि मिस्र धीमी गति के आर्थिक संकट से गुज़र रहा है.

वर्ष 2011 में हुस्नी मुबारक के ख़िलाफ़ विद्रोह के बाद से दबी-छुपी रही देश की आर्थिक समस्याएं खुलकर सामने आ गई हैं.

पर्यटन कमज़ोर पड़ गया है, बेरोज़गारी और अपराध बढ़ गए हैं, विश्वास खो गया है और सरकार के पास पैसे ख़त्म हो रहे हैं.

इन समस्याओं से निपटने में मुर्सी की नाकामी उनकी अलोकप्रियता बढ़ने की एक बड़ी वजह थी लेकिन जो भी उनकी जगह लेगा इन समस्याओं से उसे भी जूझना होगा.

नाकाम होती अर्थव्यवस्था, रोज़गार संभावनाओं का पूरी तरह अभाव और राजनीतिक हताशा, डरावने विषाद की ओर धकेल सकते हैं.

International News inextlive from World News Desk