1980 में पहली बार एच.आई.वी. वायरस का पता चला था

वैज्ञानिक उस इलाज को ढूंढ रहे हैं जिसके साथ एच.आई.वी. वायरस को पूरी तरह खत्म किया जा सके। टैम्पल यूनिवर्सिटी के लुईस काटज स्कूल ऑफ मैडीसंस के रिसर्चरों ने इस सम्बन्धी एक बड़ी सफलता हासिल की है। रिसर्चरों ने एक नए जीन एडीटिंग सिस्टम की मदद से इन्सानी सैल के डी.एन.ए. से एच.आई.वी. वायरस को सफलतापूर्वक अलग किया है। 1980 में पहली बार यह वायरस सामने आया था और अब तक एच.आई.वी., एडस के साथ 25 मिलियन लोग अपनी जान गंवा चुके हैं। सी.आर.आई.एस.पी.आर. जीन एडीटिंग तकनीक के साथ मिले नतीजे अब तक पॉजीटिव ही हैं और हो सकता है कि रिसर्चर इस तकनीक में आगे बढ़ते हुए एच.आई.वी. का सही और परमानैंट इलाज ढूंढ लें।

एंटीरैट्रोवायरल दवाओं का प्रभाव होता है घातक

एंटीरैट्रोवायरल दवाएं एच.आई.वी. इन्फैक्शन को रोकने में तो सफल रही हैं परन्तु अगर मरीज इन दवाओं का प्रयोग बंद कर दे तो मरीज के शरीर पर इसका प्रभाव बहुत भयानक तरीके से दिखाई देना शुरू हो जाता है। वैज्ञानिकों का कहना है कि इस वायरस का इलाज ढूंढना इसलिए भी मुश्किल है क्योंकि यह वायरस मनुष्य के शरीर में सी. डी.+टी. सैल्स प्राइमरी सैल्स को सबसे पहले इन्फैक्ट करता है। हाल ही में कुछ कोशिशों में इस वायरस को रीएक्टीवेट करके यह देखने की कोशिश की गई कि इसके साथ प्रतिरोधक सैल ज्यादा मजबूती के साथ इस वायरस को खत्म कर सकें। अभी तक इसका कोई पॉजीटिव रिस्पांस नहीं आया है।

टैम्पल यूनिवर्सिटी की टीम कर रही है रिसर्च

टैम्पल यूनिवर्सिटी की टीम की तरफ से सबसे सुरक्षित तकनीक अपनाते हुए सी.आर.आई. एस.पी.आर. जीन  एडीटिंग तकनीक का प्रयोग करते हुए इस वायरस को डी.एन.ए. में से हटाने की कोशिश की गई। इस तकनीक में आर.एन ए. गाइड का काम करता है जो कि एच.आई.वी.-1 वायरस को  डी.एन.ए. में लोकेट करता है। जब न्यूकलियस में से एडिट कर के वायरस को हटाया जाता है तो सैल का अपना मैकेनिज्म दोबारा सैल को ठीक कर देता है। रिसर्चर इस बात का भी ध्यान रख रहे हैं कि इस तकनीक को अपनाने के बाद सैल्स में कोई टॉक्सिक इन्फैक्शन न हो। इसके साथ-साथ यह भी ध्यान दिया जा रहा है कि यह सैल्स फिर से सही तरीके के साथ काम करें।

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