श्री श्री आनंदमूर्ति। भक्ति भाव के माध्यम से ही मानव ईश्वर से निकटता का एहसास करता है। यदि हम श्रीकृष्ण की भक्ति पर गौर करें, तो पाएंगे कि कृष्ण के ब्रजवासी होने पर भक्ति तत्व का उद्भव हुआ। विभिन्न व्यक्ति ईश्वर को भिन्न-भिन्न रूपों में देखते है। अपने-अपने संस्कार के अनुरूप ब्रज के कृष्ण को तीन दृष्टिकोण से देखा गया।

कृष्ण का वात्सल्य भाव

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नंद और यशोदा ने कृष्ण को वात्सल्य भाव से देखा था। उन्होंने परम पुरुष के विराट भाव को एक छोटे शिशु के माध्यम से देखा। यह वात्सल्य भाव कहलाया। परम पुरुष को अपनी संतान मानकर उसको प्यार करना तथा उनके साथ मस्त रहना ही वात्सल्य भाव है। इस भाव से कृष्ण के लौकिक पिता वासुदेव व लौकिक माता देवकी भी वंचित थीं। उन्होंने तो पुत्र को बड़ा होने पर पाया। तब तक कृष्ण तो अभिभावक समान हो चुके थे।

राधा ने किया था मधुर भाव से कृष्ण भक्ति

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वहीं राधा ने कृष्ण को मधुर भाव में पाया। मधुरभाव क्या है? शारीरिक, मानसिक, सामाजिक, आध्यात्मिक- अपनी समस्त सत्ता को केंद्रीभूत कर, एक बिंदु में प्रतिष्ठित कर देना ही मधुर भाव है, यानी अपना समस्त आनंद कृष्ण से पाना। यह मधुर भाव ही राधा भाव है। साधारण भक्त इसी राधा भाव को लेकर रहते हैं।

यदि कृष्ण बांसुरी बजाते हैं और कोई कहे कि उस ओर नहीं देखूंगा, तो यह संभव नहीं हो सकता है। जैसे ही बांसुरी की ध्वनि कानों में टकराएगी, वह कह उठेगा कि बिना देखे क्या रहा जा सकता है? तभी कानों में आवाज आएगी 'आज क्यों नहीं आए? आते क्यों नहीं? मैं तुम्हारे लिए बैठा हूं।' यही है मधुर भाव।

तीसरा है सखा भाव

ब्रज के गोपाल के पास केवल एक मन है। उन्होंने कृष्ण को सखा रूप में पाया। देवतागण भी उन्हें सख्य रूप में पाते हैं। अर्थात आरंभ में उन्होंने सखा के रूप में ग्रहण किया और बाद में उन्हें ही अपना सब कुछ मान लिया, यानी सखा से भी अधिक। इसलिए हे ब्रज के कृष्ण, मैं तुम्हें प्रणाम करता हूं।

 

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