पेशे से वे एक वकील हैं और फर्राटेदार अंग्रेज़ी बोलती हैं. अंतरराष्ट्रीय कॉन्ट्रैक्ट कानून के क्षेत्र में इनके पास सालों का अनुभव है. लेकिन नोबुको अब किसी बड़ी अंतरराष्ट्रीय कंपनी में काम नहीं करतीं. बल्कि आजकल तो वे कानूनी कार्रवाई से जुड़ा कोई काम न के बराबर ही करती हैं. आजकल तो वे बस अपने तीन बच्चों को संभालने का काम करती हैं.

जापान में या तो आप अपने बच्चों का ख्याल रख सकते हैं, या फिर ऑफिस का काम संभाल सकते हैं. दोनों काम साथ करना नामुमकिन ही है. नोबुको कहती हैं, “मुझे याद है जब मेरा एक ही बच्चा था तो मैं सुबह नौ बजे ऑफिस जाती थी और अगले दिन सुबह तीन बजे घर लौटती थी. अगर आप काम करना चाहते हैं तो आपको अपने बच्चों के बारे में भूल जाना पड़ता है. लेकिन मुझसे अब ये नहीं होता. ये असंभव है.”

पतियों का सहारा नहीं
नोबुको की कहानी इस बात का उदाहरण है कि जापान में काम का दबाव कितना घातक हो सकता है. और यही कारण है कि जापान में 70 प्रतिशत से ज़्यादा मिलाएं अपना पहला बच्चा होने पर ही नौकरी छोड़ देती हैं.

दूसरा कारण है इन जापानी महिलाओं के पति, जो अमरीकी या यूरोपीय मर्दों की तरह घर के किसी काम में अपनी पत्नियों की मदद नहीं करते. जर्मनी, स्वीडन और अमरीका में पति हर दिन औसतन तीन घंटे घर का काम या बच्चे संभालने में बिताते हैं.

लेकिन जापान में ये औसत एक घंटे की है और यहां के पति अपने बच्चों के साथ दिन में केवल 15 मिनट बिताते हैं. जापान में बच्चा पैदा होने के बाद पतियों को भी ऑफिस से छुट्टी मिलती है लेकिन केवल 2.6 प्रतिशत पति ही इस छुट्टी का इस्तेमाल करते हैं.

नोबुको बताती हैं कि उनके पति ने भी बच्चा पैदा होने के बाद छुट्टी नहीं ली. “ज़्यादातर जापानी पुरुष बच्चा पैदा होने पर मिलने वाली छुट्टियों का इस्तेमाल करने से झिझकते हैं. हो सकता है कि वे घर आकर अपनी पत्नियों की मदद करना चाहते हैं, लेकिन उन्हें डर रहता है कि अगर वे काम छोड़ कर घर आ जाएंगें तो उनकी नौकरी खतरे में पड़ सकती है.”

माओं का महत्व
इस सब के बावजूद कई जापानी महिलाएं बच्चा होने के बाद भी काम करना चाहती हैं. लेकिन फिर दिक्कत आती है बच्चे की देख-रेख को लेकर. टोक्यो सरकार के आंकड़ों के मुताबिक शहर में 20,000 बच्चे डे-केयर संस्थानों की वेटिंग लिस्ट में हैं.

बच्चों की देख-रेख के लिए कुछ सरकारी संस्थान शहर में मौजूद है लेकिन उनकी संख्या पर्याप्त नहीं है. जो संस्थान हैं भी, वो बहुत महंगी हैं, जिसका खर्चा सभी मां-बाप नहीं उठा पाते.

नोबुको हंसते हुए बताती हैं, “सरकारी संस्थानों में एक बच्चे का महीने का खर्च 50,000 रुपए से ज़्यादा है लेकिन निजी संस्थानों में ये खर्च दोगुना है. लेकिन निजी संस्थाएं बहुत अच्छी होती हैं!”

इन सभी बातों के दो निष्कर्ष निकलते हैं – जापान में जिन महिलाओं के पास बच्चे हैं, वे काम नहीं कर रही हैं और जो महिलाएं काम कर रही हैं, उनके पास बच्चे नहीं है.

ये दोनों ही स्थिति जापान के भविष्य के लिए खतरनाक हैं. अमरीकी मूल की जापानी अर्थशास्त्री केथी मात्सुई का कहना है कि जापानी महिलाओं को काम जारी रखने देना राष्ट्रीय प्राथमिकता होना चाहिए.

उनका कहना है कि जापानी मांओं की भूमिका यहां के सकल घरेलु उत्पाद में 15 प्रतिशत की बढ़ोत्तरी ला सकता है. साथ ही मात्सुई का कहना है कि जापान में लोगों के पास बच्चों से ज़्यादा पालतु जानवर हैं, जिसका मतलब है कि भविष्य में यहां कामकाजी लोगों की कमी पड़ सकती है.

यूरोप और अमरीका के आंकड़ें बताते हैं कि महिलाओं को काम पर जाने के लिए प्रोत्साहित किया जाए, तो जन्म दर में बढ़ोत्तरी हो सकती है. 2006 में जापान की जनसंख्या सिकुड़नी शुरू हो गई थी, और अगर ऐसा ही चलता रहा तो अगले 50 सालों में इसकी एक-तिहाई जनसंख्या गायब हो सकती है.

 

 

 

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