ऐसा न करने पर उन्हें घर से बाहर कर दिया गया। मीतू खुराना ने इसके बाद देश भर में कन्या भ्रूण हत्या के खिलाफ़ मुहिम चलानी शुरू की और लोगों को इसके बारे में जागरूक करना शुरू किया। अपने इस अनुभव के बारे में उन्होंने बीबीसी के साथ बातचीत की और बताया कि इसके पीछे सबसे बड़ा कारण है कानून का सही ढंग से पालन न होना।

वे कहती हैं, “जो लोग कानून को लागू करवाने वाले हैं खुद उनका यही मानना है कि बेटों का महत्व बेटियों से ज्यादा है। वो भी ये कहते हैं कि क्या ग़लत है इसमें। इसी वजह से कानून बनने के इतने साल बाद भी इसका कोई प्रभाव नहीं दिख रहा है.”

डा। खुराना बताती हैं कि साल 2006 में उनकी जुड़वां बेटियां हुईं, लेकिन आज तक उनके ससुराल वालों ने न तो उन्हें और न ही उनकी बेटियों को स्वीकार किया है।

वे बताती हैं, “तीन साल पहले काफी कानूनी कार्रवाई के बाद मेरे पति ने स्वीकार किया कि उन्होंने जबरन गर्भपात के लिए दबाव डाला था। यहां तक कि जब मैंने कानून का दरवाजा खटखटाया तो अधिकारी भी मुझसे ये कहने लगे कि इसमें ग़लत क्या है। उन लोगों ने मुझसे यहां तक कहा कि यदि ससुराल वाले बेटा चाहते हैं तो दे दो बेटा। कौन नहीं चाहता है कि बेटा हो.”

बेटे की चाहत

मीतू खुराना के मुताबिक लिंग परीक्षण सिर्फ और सिर्फ बेटों की चाहत में लोग कराते हैं क्योंकि भारत में ऐसा कोई उदाहरण नहीं मिलता जहां लोगों ने किसी बेटे के होने पर गर्भपात कराया हो।

उनका कहना है कि भारत के बाहर भी जो एनआरआई हैं, उन्होंने भी अपनी मानसिकता नहीं बदली है। उनके अनुसार, “मैंने अपने अध्ययन से जो आंकड़े जुटाए हैं उनमें अमरीका, चीन, योरप, ऑस्ट्रेलिया जैसे देशों में रहने वाले भारतीय भी इसी मानसिकता के हैं कि उन्हें बेटा जरूर होना चाहिए.”

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