दिल्ली हाईकोर्ट ने बुधवार को कन्हैया कुमार को छह महीने की सशर्त अंतरिम ज़मानत दी थी।

कन्हैया कुमार को 12 फ़रवरी को राष्ट्रद्रोह के आरोप में गिरफ़्तार किया गया था। नौ फ़रवरी को विश्वविद्यालय परिसर में संसद हमले के दोषी अफ़ज़ल गुरु की बरसी पर कार्यक्रम में कथित तौर पर भारत विरोधी नारे लगाए गए थे।

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फ़ेसबुक पर चंद्रकांत पी सिंह लिखते हैं, “कोर्ट ने तो यह भी कहा है कि शरीर का कोई अंग लाइलाज हो जाए तो उसे काटकर हटाया जा सकता है, लेकिन फिलहाल कन्हैया को मौक़ा दिया जाता है सुधरने का। इसके क्या मायने हैं?”

अरविंद दास लिखते हैं, “ज़मानत आदेश में जज की टिप्पणियां मुझे मराठी फ़िल्म कोर्ट की याद दिलाती हैं।”

'कन्हैया की ज़मानत को जीत न मानें वामपंथी'

रनंजय आनंद लिखते हैं, “निश्चित तौर पर कन्हैया पर ये निर्णायक फ़ैसला नहीं है और अंतरिम आदेश है। कोर्ट ने उन्हें एक मौक़ा दिया है। कोर्ट ने उन्हें भविष्य में ऐसी गतिविधियों के लिए चेतावनी भी दी है!”

नवनीत कुमार कहते हैं, “ज़मानत देते हुए जज के आदेश पर ध्यान देने की ज़रूरत है। प्रिय वामपंथियों इसे अपनी जीत न मानें।”

संदेश दीक्षित लिखते हैं, “जेएनयू छात्र संघ का अध्यक्ष होने के नाते याचिकाकर्ता (कन्हैया) को विश्वविद्यालय परिसर में राष्ट्रविरोधी कार्यक्रम आयोजित करने के लिए ज़िम्मेदार और जवाबदेह ठहराया जाना चाहिए था।”

'कन्हैया की ज़मानत को जीत न मानें वामपंथी'

जयंत जिग्यासू लिखते हैं, “सच को थोड़ी देर के लिए परेशान किया जा सकता है, लेकिन उसे किसी सूरत में शिकस्त नहीं दी जा सकती है। कन्हैया को ज़मानत मिलना हमारी साझा लड़ाई की आंशिक सफलता है।”

साजिद आज़ाद ने बीबीसी हिंदी के फ़ेसबुक पन्ने पर लिखा, "अगर कैंपस में हुई घटना के लिए कॉलेज अध्यक्ष ज़िम्मेदार है तो फिर 1984, 1992, 2002, पटेल आंदोलन, गूजर आंदोलन और जाट आंदोलन के लिए कौन ज़िम्मेदार है।"

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