किताब का नाम ' आई वॉज़ देयर-मेमॉयर्स ऑफ़ ए क्रिकेट एडमिनिस्ट्रेटर' है। आत्मकथा में लेले ने लिखा है, "1999-2000 के दौरान मैच-फ़िक्सिंग का मामला चरम पर था। न्यूज़ीलैंड के ख़िलाफ़ अहमदाबाद टेस्ट में भारत ने पहली पारी में 583 रन का विशाल स्कोर खड़ा किया था जिसके जवाब में मेहमान टीम केवल 308 ही बना पाई थी। सबको उम्मीद थी कि भारत न्यूज़ीलैंड को फ़ॉलोऑन देगा."

लेले के अनुसार, "भारतीय कप्तान सचिन तेंदुलकर ने न्यूज़ीलैंड के कप्तान स्टीफ़न फ़्लेमिंग को बताया कि उन्हें दोबारा बल्लेबाज़ी करनी होगी। सचिन ने अंपायरों को बताया कि भारत फ़ॉलोऑन दे रहा है और उनसे गेंदबाज़ों के लिए गेंदें दिखाने को कहा। इसके बाद तेंदुलकर ड्रैसिंग रूम में गए जहां उन्होंने जवागल श्रीनाथ और वेंकटेश प्रसाद को नई गेंद चुनने के लिए कहा। लेकिन इस बातचीत के दौरान भारतीय कोच कपिल देव ने सचिन से चिल्ला कर कहा, ' कप्तान, फ़ॉलोऑन नहीं। हमारे गेंदबाज़ थके हैं। हम बल्लेबाज़ी करेंगे."

जयवंत लेले ने लिखा है कि इस फ़ैसले पर चयन समिति के प्रमुख चंदू बोर्डे और उन्हें बहुत हैरानी हुई थी। सचिन ने कपिल देव की बात मान कर अंपायरों को जाकर बताया कि उन्होंने अपना फ़ैसला बदल दिया है।

ये मैच बिना हार-जीत के फ़ैसले के ड्रॉ में ख़त्म हुआ।

लेले ने लिखा है, "मेरी जानकारी के मुताबिक़ जब सीबीआई मैच फ़िक्सिंग मामले की जांच कर रही थी, उन्होंने कपिल देव से इस बारे में पूछा था। गवाह के तौर पर सचिन को भी बुलाया गया था। मुझे बताया गया है कि सचिन ने कहा कि ये टीम का फ़ैसला था."

दूसरों की सुनते थे 'कप्तान' तेंदुलकर

जयवंत लेले के मुताबिक़ बतौर कप्तान सचिन तेंदुलकर दूसरों की सलाह बहुत ज़्यादा सुनते थे और उन्हें लगता था कि बड़ों की सलाह को नज़रअंदाज़ करना उनके प्रति सम्मान न दिखाने जैसा होगा।

लेले लिखते हैं, "सचिन ख़ुद को सफल कप्तान साबित नहीं कर पाए हालांकि खिलाड़ी के रूप में वो श्रेष्ठतम हैं। मैं ख़ुद को भाग्यशाली मानता हूं कि जब सचिन कप्तान थे, मुझे उनके साथ मिलने-जुलने के बहुत मौक़े मिले। बात ये है कि सचिन स्वभाव से नर्म, मृदु-भाषी और शर्मीले इंसान हैं। वो 16 साल की कम उम्र से अंतरराष्ट्रीय क्रिकेट खेल रहे हैं और तभी से उन्हें बड़ों का सम्मान करने की आदत थी। उनको लगता था कि बड़ों की सलाह को मानना उनका फ़र्ज़ है। और ऐसा करने में कई बार वो अपनी बुद्धि का इस्तेमाल नहीं करते थे। कई मामलों में ऐसा करना फ़ायदेमंद साबित हुआ और कई मामलों में नहीं भी."

जयवंत लेले ने ये भी लिखा है कि 1999-2000 में दक्षिण अफ़्रीका के ख़िलाफ़ पहले टेस्ट के दौरान ही तेंदुलकर कप्तानी से इस्तीफ़ा देना चाहते थे।

वो लिखते हैं, "1999-2000 में दक्षिण अफ़्रीका के साथ दो टेस्ट मैच और एकदिवसीय शृंखला खेली जा रही थी। मुंबई में पहला टेस्ट दक्षिण अफ़्रीका ने आसानी से तीन दिन में जीत लिया जिससे पूरी टीम और ख़ासकर सचिन की कप्तानी की सब तरफ़ निंदा हुई। इस बात से सचिन बहुत उदास और घबरा गए थे। मैच के दूसरे दिन ही स्पष्ट था कि भारत बड़े अंतर से मैच हारेगा."

उन्होंने आगे लिखा है, "दूसरे दिन की शाम सचिन ने मुझे एक पत्र दिया। मैं ये देखकर हैरान रह गया कि वो उनका इस्तीफ़ा था। ये बहुत शर्मिंदगी की बात थी। एक मैच ख़त्म होने वाला था और कुछ दिनों बाद दूसरा टेस्ट शुरु होना था। अगर वो (सचिन) अपमानित और कसूरवार महसूस भी कर रहे थे तो उन्हें टेस्ट सिरीज़ के ख़त्म होने के बाद इस्तीफ़ा देना चाहिए था."

लेले कहते हैं कि ये एक मु्श्किल स्थिति थी और उन्होंने सचिन को ऐसा करने से रोकने की कोशिश की। उन्होंने इस काम में बीसीसीआई के अध्यक्ष राजसिंह डूंगरपुर और पूर्व क्रिकेटर रवि शास्त्री की भी मदद ली। लेकिन जब सचिन ने किसी की भी नहीं सुनी तब वो सचिन की पत्नी अंजलि के पास गए जिसके बाद सचिन ने अपना फ़ैसला बदला।

सचिन ने इस सिरीज़ ख़त्म होने के बाद कप्तानी से इस्तीफ़ा दिया था। जयवंत लेले ने अपनी आत्मकथा में इसका ज़िक्र किया है कि नवजोत सिंह सिद्धू ने 1996 का इंग्लैंड दौरा बीच में इसलिए छोड़ा क्योंकि उन्हें लगा कि कप्तान मोहम्मद अज़हरूद्दीन लगातार उनसे ख़राब भाषा में बात कर रहे हैं।

लेले लिखते हैं, "सिद्धू ये नहीं जानते थे कि अज़हरूद्दीन केवल अपने शहर हैदराबाद में इस्तेमाल होने वाले शब्दों का इस्तेमाल कर रहे थे और उनकी मंशा सिद्धू की बेइज़्ज़ती करना नहीं थी."

जयवंत लेले की आत्मकथा का विमोचन दो नवंबर को मुंबई में होगा। वो भारतीय क्रिकेट बोर्ड के सचिव थे, जब बीसीसीआई ने पूर्व क्रिकेटर मोहम्मद अज़हरुद्दीन और अजय जडेजा को मैच-फ़िक्सिंग मामले में उनकी तथाकथित भूमिका के लिए पांच साल के लिए निलंबित किया था।

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