बापू के अनुयायी

डाक्टर राजेंद्र प्रसाद राष्ट्रपिता मोहन दास करमचंद गांधी से बेहद प्रभावित थे और इसी लिए उन्होंने इंडियन नेशनल कांग्रेस में शामिल हो कर स्वतंत्रता आंदोलन में भाग लिया।

राष्ट्रपति से पहले बने मंत्री

भारतीय संविधान के लागू होने के बाद वे भारत के प्रथम राष्ट्रपति बने लेकिन उसे पहले वे स्वाधीन भारत के केंद्रीय मंत्री भी रहे थे।

देशरत्न भी कहलाते हैं राजेंद्र बाबू

डाक्टर राजेंद्र प्रसाद पूरे देश में अत्यन्त लोकप्रिय होने के कारण राजेन्द्र बाबू या देशरत्न के नाम से भी बुलाये जाते थे।

बचपन में हो गयी शादी

उस समय की परंपरा के अनुसार डाक्टर राजेंद्र प्रसाद की 13 वर्ष की उम्र में राजवंशी देवी से शादी हो गयी थी। हालाकि ये बाल विवाह उनके लिए सकारात्मक ही रहा और उनकी जीवनशैली और शिक्षा दीक्षा पर कोई विपरीत प्रभाव नहीं पड़ा।  

फारसी की भी ली शिक्षा

डाक्टर राजेंद्र प्रसाद ने बचपन में पाँच वर्ष की उम्र में बेसिक स्कूल की शिक्षा के साथ साथ एक मौलवी साहब से फारसी की भी शिक्षा लेनी शुरू कर दी थी। 1915 में उन्होंने स्वर्ण पद के साथ विधि परास्नातक LLM की परीक्षा पास की और बाद में लॉ के क्षेत्र में ही उन्होंने डॉक्ट्रेट की उपाधि भी हासिल की।

स्वतंत्रता आंदोलन में भागीदारी

भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन में उनका पदार्पण वक़ील के रूप में अपने कैरियर की शुरुआत करते ही हो गया था। बाद में महात्मा गांधी के प्रभाव में आने पर 1921 में उन्होंने कोलकाता विश्वविद्यालय के सीनेटर के पद से त्यागपत्र दे दिया। 1934 में वे भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के मुंबई अधिवेशन में अध्यक्ष चुने गये। नेताजी सुभाषचंद्र बोस के अध्यक्ष पद छोड़ने पर कांग्रेस अध्यक्ष का पद उन्होंने एक बार पुन: 1939 में सँभाला था।

सहज सरल व्यक्तित्व

राजेन्द्र बाबू की वेशभूषा बड़ी सरल थी। वे चेहरे मोहरे से भी बेहद सहज और सामान्य ही नजर आते थे। कई बार उनकी सादगी देख कर ये लगता ही नहीं था कि वे इतने प्रतिभासम्पन्न और श्रेष्ठ व्यक्तित्व वाले सज्जन पुरुष हैं। इलाहाबाद विश्वविद्यालय द्वारा उन्हें डाक्टर ऑफ ला की सम्मानित उपाधि प्रदान करते समय कहा गया था कि बाबू राजेंद्रप्रसाद ने अपने जीवन में सरल व नि:स्वार्थ सेवा का ज्वलन्त उदाहरण प्रस्तुत किया है।

श्रेष्ठ लेखक

राजेन्द्र बाबू एक उच्च कोटि के लेखक भी थे उन्होंने 1946 में अपनी आत्मकथा के अलावा और भी कई पुस्तकें लिखी जिनमें बापू के कदमों में (1954), इण्डिया डिवाइडेड (1946), सत्याग्रह ऐट चम्पारण (1922), गान्धीजी की देन, भारतीय संस्कृति व खादी का अर्थशास्त्र आदि कई रचनायें शामिल हैं।

भारतरत्न प्रसाद

सन 1962 में राष्ट्रपति पद से अवकाश प्राप्त करने पर राष्ट्र ने उन्हें "भारत रत्न" की उपाधि से सम्मानित किया।

देहावसान

अपने जीवन के आख़िरी महीने बिताने के लिये उन्होंने पटना के निकट सदाकत आश्रम चुना। यहाँ पर ही 28 फ़रवरी 1963 में उनका निधन हुआ।

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