हम लोग चेतना के तीन स्तरों से जीवन-यापन करते हैं जागृत, स्वप्न और सुषुप्ति। चेतना की जागृत अवस्था में हम संसार को पांच इंद्रियों के द्वारा अनुभव करते हैं। यह दृश्य, गंध, स्पर्श, श्रवण या स्वाद हो सकता है। हम इन इंद्रियों से आनंद और उत्साह प्राप्त करते हैं। प्रत्येक इंद्रिय की आनंद उठाने की क्षमता सीमित होती है। अंतत: कोई भी कितना अधिक किसी भी वस्तु को देख, सुन और स्पर्श कर सकता है? थोड़े से समय के बाद इंद्रिय थक जाती है और हम अपने अंतरतम में वापस जाना चाहते हैं।

इंद्रिय संबंधी वस्तुओं को बहुत अधिक महत्व देना, लालच और वासना की तरफ ले जाता है, जबकि मन तथा इसकी इच्छाओं को अधिक महत्व देना माया की तरफ ले जाता है। हमें इन चीजों में विभेद करना सीखना चाहिए और सजग रहना चाहिए। यह तभी होगा, जब हमारे अंदर स्पष्टता का उदय होगा। चेतना की उच्चतर स्थिति की तरफ यह पहला चरण है। तब चेतना का चतुर्थ या उच्चतर स्तर जागने, सोने तथा स्वप्न की अवस्था के बीच होता है।

ध्यान ही हमें आत्मा से जोड़ता है

जानें चेतना और ध्यान में क्या होता है अंतर?

जब हम जानते हैं कि 'हम हैं’ लेकिन यह नहीं जानते कि 'हम कहां हैं’। यह ज्ञान कि 'मैं हूं’ लेकिन यह न जानना 'मैं कहां हूं’ या 'मैं क्या हूं’, शिव कहलाता है। जागृत अवस्था में व्यक्ति निरंतर देखने, खाने और सुनने आदि में लीन रहता है। दूसरी सीमा सुप्तावस्था है, जहां व्यक्ति पूरी तरह निष्क्रिय रहता है। दरअसल, जागने के बाद भी भारीपन और निष्क्रियता कुछ देर तक बनी रहती है । इसलिए चौथी स्थिति जहां हम जागृत हैं और तब भी पूरी तरह से विश्राम में हैं, जानने योग्य है। हम केवल ध्यान के समय ही इस स्थिति में प्रवेश करते हैं इसलिए ध्यान ही हमें आत्मा से जोड़ता है ।

अनंत को धारण करें

जानें चेतना और ध्यान में क्या होता है अंतर?

हमारे शरीर की प्रत्येक कोशिका में अनंत को धारण करने की क्षमता होती है। हमें अपनी क्षमता का पूरा लाभ उठाना चाहिए। इसके लिए नित्य ध्यान करना चाहिए। ध्यान एक बीज की तरह है। जितनी अच्छी तरह से बीज बोया जाएगा, उतना अधिक यह बढ़ेगा । इसी प्रकार हम जितना ही ध्यान करते हैं उतना ही यह हमारे स्नायुतंत्र और शरीर को पोषण प्रदान करता है।

पूज्य श्री श्री रवि शंकर जी

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