हॉकी ने लगा लिया उसे गले
साल 1999, मणिपुर में राष्ट्रीय खेल चल रहे थे। इक साधारण से ड्राइवर की आठ बरस की बेटी फुटबॉल मैच देखने स्टेडियम पहुंची थी। उस मैच के बाद वह अपने अंदर एक सपना लेकर घर लौटी थी। वह सिर्फ सुशीला चानू नहीं बल्कि खिलाड़ी सुशीला चानू कहलाना चाहती थी। जब वह 11 साल की हुई तो उसके हाथों में हॉकी स्टिक आ गई। उसके चाचा ने उसे इस खेल को अपनाने के लिए प्रेरित किया। तब मणिपुर के कई खिलाड़ी पुरुष व महिला राष्ट्रीय हॉकी टीम के सदस्य थे। सुशीला ने हॉकी को अपनाया और हॉकी ने उसे गले लगा लिया।

एक बेहतर डिफेंडर
इंफाल से शुरू सुशीला के सफर को बड़ा मुकाम जर्मनी में मिला। वह 2013 के जूनियर वर्ल्ड कप में भारतीय महिला जूनियर हॉकी टीम की कप्तानी कर रही थी। टीम ने ब्रांज मेडल जीतकर भारतीय हॉकी के लिए सुनहरी आस जगा दी। इसके बाद उसने सीनियर टीम में जगह बनाई। बतौर सेंटर हाफ खेलने वाली सुशीला ने 2015 के हॉकी वर्ल्ड कप में भारतीय टीम की रक्षा पंक्ति को मजबूती दी। इसके ठीक बाद आस्ट्रेलिया में चार देशों के टूर्नामेंट में उसे सीनियर टीम की अगुवाई का मौका मिला।

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चोट भी नहीं रोक पाई सपनों की उड़ान
हालांकि इसके बाद घुटने में लगी चोट से उसका करियर खत्म होने का खतरा पैदा हो गया। लोगों को लगा कि अब शायद वह मैदान पर वापसी नहीं कर पायेगी। बहरहाल चानू ने दो महीनों के भीतर वापसी कर अपने इरादों की मजबूती का अहसास करा दिया। सेंट्रल मुंबई रेलवे में जूनियर टिकट कलेक्टर 24 बरस की सुशीला चानू आज सीनियर भारतीय महिला टीम की कप्तान हैं। भारतीय महिला हॉकी टीम 36 बरस बाद ओलंपिक खेल रही है। यह मौका ही नहीं उसके कप्तान की दास्तान भी खास है।

नोट: यह दास्तान सुशीला चानू से संबंधित विभिन्न साक्षात्कारों व समाचारों पर आधारित है।

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