प्रश्न: ज्ञानी का मार्ग भक्त के मार्ग से क्या सर्वथा भिन्न है? जिस होश की आप चर्चा करते हैं, वह प्रेमी का मार्ग है या ज्ञानी का? यदि होश हो तो प्रेम कैसे घटेगा?

तीन संभावनाएं हैं: एक, कोई व्यक्ति ज्ञान के मार्ग से खोजे। जो व्यक्ति ज्ञान के मार्ग से खोजेगा, ध्यान उसकी विधि होगी, ध्यान उसका रास्ता होगा। जिस दिन उपलब्धि होगी, समाधि फलेगी, उस दिन वह अचानक पाएगा कि करता तो जीवनभर ध्यान रहा और समाधि मिली; लेकिन अब समाधि के साथ अचानक प्रेम का आविर्भाव हुआ है। दूसरा मार्ग है, कि तुम भक्ति के मार्ग से चलो। भक्ति के मार्ग पर प्रेम साधन है और जब मंजिल आती है और भक्त मंदिर पर पहुंचता है तो अचानक चकित हो जाता है कि ध्यान की लवलीनता उपलब्ध हो गई है। तो, जो ध्यान के मार्ग से चलते हैं, वे प्रेम को पाते हैं अंत में; जो प्रेम के मार्ग से चलते हैं, वे ध्यान को पाते हैं अंत में। और एक तीसरा मार्ग है कि तुम दोनों पर एक साथ चल सकते हो। तुम प्रेम और ध्यान को साथ साध सकते हो। तब तुम प्रेमी-भक्त, ज्ञानी-भक्त या भक्त-ज्ञानी हो।

मेरी चेष्टा यही है कि तुम दोनों साथ-साथ साध लो। क्यों इतनी देर भी प्रतीक्षा करनी! ध्यान के साथ ही प्रेम साधा जा सकता है और जब ध्यान के साथ प्रेम को साधोगे तो तुम्हारे ध्यान में एक रससिक्तता होगी जो खाली ध्यान साधने वाले में नहीं होती। अगर तुम ध्यान ही ध्यान साधोगे तो प्रेम फलेगा अंत में, लेकिन पूरे रास्ते वह जो प्रेम की वर्षा साथ-साथ हो सकती थी, उससे तुम वंचित रह जाओगे। मैं कहता हूं, क्यों वंचित रहना? जो व्यक्ति प्रेम को साधेगा, उसके जीवन में प्रेम तो रहेगा, रस रहेगा, माधुर्य रहेगा; लेकिन ध्यान से जो शांति फलित होती है, वह जो परम शून्यता फलित होती है, वह फलित नहीं होगी। उसके जीवन में रंग तो होगा, प्रसन्नता भी होगी; लेकिन प्रसन्नता के भीतर शून्यता की शांति नहीं होगी। ये दोनों ही थोड़े अपंग होंगे और दोनों एक-दूसरे के विपरीत होंगे, क्योंकि मार्ग पर ध्यानी को पता नहीं है कि अंत में प्रेम भी आ जाता है; और मार्ग में प्रेमी को भी पता नहीं है कि अंत में ध्यान भी आ जाता है। तो ध्यानी कहेगा, क्या व्यर्थ ही पूजा-प्रार्थना में लगे हो, किसके लिए हाथ जोड़ रहे हो? वहां कोई भी नहीं है। आंख बंद करो, परमात्मा भीतर है।

ज्ञानी ब्रह्मज्ञान की बात करेगा और भक्त? भक्त कहेगा, क्या आंख बंद करके बैठे हो? सब तरफ परमात्मा की लीला हो रही है। देखो, आंख खोलो। ज्ञानी और भक्त का विरोध है मगर दोनों अधूरे हैं। एकांगी हैं। परमात्मा ने दोनों दिए हैं, उसका प्रयोजन है। जीवन में एक संतुलन हो। संतुलन यानी संयम। तो, कभी-कभी भक्ति भी अति हो जाती है, वह भी असंयम है; और ध्यान भी अति हो जाता है, वह भी असंयम है। परमात्मा के पास पहुंचकर तो तुम्हें पूरा हो जाना पड़ेगा इसलिए भक्त ज्ञानी हो जाता है, ध्यानी हो जाता है; ध्यानी भक्त हो जाता है लेकिन जो अंत में हो जाना है, मैं कहता हूं, पहले से ही क्यों न हो जाओ? मंजिल पर ही जाकर क्यों पूरे को उपलब्ध करो? हर कदम क्यों न मंजिल हो जाए? तो, मेरी सारी चेष्टा यह है कि तुम ध्यान भी करो, तुम नाचो भी। तुम प्रेम भी करो, तुम भक्ति भी करो; तुम शून्यता में भी जाओ और तुम पूर्णता के गीत भी गाओ। और जिस दिन तुम दोनों को साध लोगे, उस दिन तुम पाओगे कि अद्वैत सधा। नहीं तो ज्ञानी भक्तों के खिलाफ हैं, भक्त ज्ञानियों के खिलाफ हैं- संप्रदाय खड़े होते हैं, विरोध खड़ा होता है, द्वैत खड़ा होता है।

विभाजन करो ही मत। तुम्हें परमात्मा ने हृदय भी दिया है, उसे भक्ति में डूबने दो; तुम्हें परमात्मा ने प्रज्ञा दी है, बुद्धि दी है, उसे ध्यान में डूबने दो। ये तुम्हारे दो पंख- दोनों ही उड़ें। परमात्मा का खुला आकाश, बड़ा आकाश! तुम क्यों लंगड़ाने को उत्सुक हो? अगर तुम ध्यान और भक्ति को एक साथ चुनोगे तो पाओगे कि ये दोनों बड़ी विरोधी चीजें हैं। कहां प्रेम! उसमें तो दूसरे से जुड़ना है, परमात्मा के चरण खोजने हैं और कहां ध्यान! उसमें तो सब छोड़ देना है, अकेले रह जाना है। मैं तुमसे कहता हूं कि अगर तुम दो विपरीत के बीच एकता न देख पाए तो तुम अंधे ही हो। जैसे दिन है और रात है -ऐसे ही भक्ति है और ध्यान है।

ओशो।

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