शहर के हालात को देखकर अभी तक तो मुंह से यही निकलता था कि यहां तो ऐसे ही चलता रहेगा, कुछ नहीं बदलेगा। लेकिन दिल्ली में आम आदमी ने जो एतिहासिक बदलाव कर दिखाया है। उससे कानपुर के आम आदमी की भी धारणा बदल दी है। कानपुराइट्स भी मानने लगे हैं कि कि अगर ‘हम’ चाह लेंगे तो सब कुछ बदल सकता है। अरविंद केजरीवाल की सफलता विकल्पों के अभाव में कसमसाते कॉमन मैन को उम्मीद जगा रही है। सवाल केजरीवाल का नहीं सवाल च्वाइस का है। इस उम्मीद का है कि सिस्टम को हराया जा सकता है अगर वो संतुष्ट न कर पा रहा हो तो।
वक्त और हालात भी वर्ष 1947 में देश की आजादी के बाद एक बड़े एतिहासिक बदलाव के होने का इशारा कर रहे हैं। या यूं कहे कि इतिहास खुद को दोहराने की दहलीज पर खड़ा है। आजादी के कैलेंडर और वर्ष 2014 के कैलेंडर का एक होना महज इत्तिफाक नहीं है। जो हो रहा है, वो साधारण और सामान्य नहीं है

शहरवासियों को भी चाहिए परिवर्तन
सोशल एक्टिविस्ट गणेश तिवारी कहते हैं कि देश को आजाद कराने के लिए अच्छे लोगों की जरूरत थी, उस वक्त अच्छे लोग आगे आए और देश को आजादी मिली। आज भी देश को बेहतर तरीके से आगे ले जाने के लिए अच्छे लोगों की जरूरत है। ये बात सच है कि हर किसी के दिल में देश के प्रति प्रेम है। लेकिन प्रेम का आधार क्या है, इस बात को टटोलना मुश्किल है। ये बदलाव का वक्त है और बेहतर बदलाव दिख रहे हैं। ऐसे में अपने शहर में भी अगर कानपुराइट्स को परिवर्तन चाहिए तो की लोकल गवर्नेंस में बेहतर लोगों के पहुंचने की जरूरत है। इसलिए पॉलिटिक्स से भागने की बजाय उसमें भूमिका निभाने पर विचार करने का वक्त आ चुका है। इस वक्त कानपुर शहर की स्थिति प्रजा विहीन राज्य की तरह हो चुकी है। शहर की बदहाल होती स्थिति की वजह से लोगों का पलायन बदस्तूर जारी है, जो लोग रह रहे हैं, वो भी मजबूरी में ही रह रहे हैं।
हमें भी बदलाव का हिस्सा बनना होगा

ह्यूमन राइट एक्टिविस्ट नीरज कुमार शर्मा के मुताबिक, बदलाव तो दिखने लगा है। दिल्ली में जो कुछ भी हुआ है। वो चमत्कार नहीं है बल्कि जो आम आदमी इतनों सालों से अपने गुस्से को अंदर दबाकर बैठा हुआ था, उसके बाहर निकलने का नतीजा है। और ये उद्गार निकलने का सिलसिला बहुत पहले से शुरू हो गया था। अगर समाज को बेहतर बनाना है तो गवर्नेंस भी बेहतर और साफ-सुथरी ही चुननी होगी। अगर हालात बदलने हैं तो खुद आगे बढक़र इस बदलाव का हिस्सा बनना होगा और इसका असर दिखना शुरू हो चुका है। कैलेंडर वर्ष 1947 और कैलेंडर वर्ष 2014 के एक होने की स्थितियां भी कुछ इसी तरफ इशारा कर रही हैं। अब आम आदमी बेहतर बदलाव चाहता है।

ग्रहों की चाल कुछ कहती है
कैलेंडर वर्ष 1947 में जो सूर्य आदि ग्रहों के योग से जनमानस में भारत माता को स्वतंत्र रूप में देखने का जो पूर्व में संकल्प चल रहा था उसके पूर्ण होने की संभावना वर्ष के शुरूआत में दिखने लगी थी। उस वर्ष में ग्रहों की स्थितियों के असर से अगस्त में एक अभूतपूर्व बदलाव के साथ वो संकल्प साकार भी हो गया। ठीक उसी प्रकार से वर्ष 2014 में भी सूर्य आदि ग्रहों के साथ-साथ भारत मां जो संस्कृत ‘संस्कार’ के रूप में जागृत आम आदमी को जनमानस में उसी संदर्भ में जोड़ रहा है। देश की कुंडली भी स्पष्ट रूप से दर्शा रही है कि ग्रहों की चाल और स्थिति एक बड़े बदलाव की और देश को लेकर जा रहे हैं।
उमेश दत्त शुक्ला, ज्योतिषाचार्य