प्रश्न: एकांत और पूर्णता में सामंजस्य कैसे हो सकता है?

सामंजस्य की कोई जरूरत नहीं है। एकांत ही पूर्णता है, लेकिन एकाकीपन का अर्थ व्यक्तित्व नहीं है। समाज के कारण ही तुम एक व्यक्ति हो। जब तुम सर्वथा अकेले होगे तो व्यक्ति नहीं रह जाओगे। व्यक्ति का अर्थ है, समाज का एक हिस्सा, समाज की एक इकाई। जब तुम भीड़ में होते हो तो एक व्यक्ति होते हो; जब तुम भीड़ से बाहर निकल आते हो तो न केवल भीड़ पीछे छूट जाती है वरन व्यक्ति भी पीछे छूट जाता है। वह व्यक्तित्व तुम्हें दिया गया था।

व्यक्तित्व और समाज एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। यह ऐसा ही है जैसे मैंने कहा कि अकेले न तुम अच्छे होते हो न बुरे, न पापी होते हो न पुण्यात्मा, न सुंदर होते हो न कुरूप, न बुद्धिमान होते हो न मूर्ख। दोनों ही द्वैत समाप्त हो जाते हैं। दुई गिर जाती है। यदि कोई समाज न हो तो तुम व्यक्ति कैसे हो सकते हो? तुम बस होगे, और तुम्हारा एकाकीपन ही पूर्णता होगा। अहंकार गिर जाएगा और यह अहंकार ही है जो तुम्हें व्यक्तित्व का भाव देता है। इसे अभिव्यक्त करना कठिन है क्योंकि भाषा में यह बड़ा अजीब लगता है। क्योंकि यदि तुम कल्पना करो कि किसी पहाड़ पर, हिमालय की किसी कंदरा में बैठे हुए हो तो स्वयं को तुम एक व्यक्ति की तरह ही सोचोगे-क्योंकि तुम जानते ही नहीं कि एकांत क्या है।

एकांत का अर्थ है कि सब विचार, सारा मन, सब पीछे छूट गया। तुम बस एक रिक्तता, एक शून्य, एक ना-कुछ रह जाओगे। तुम व्यक्ति नहीं होते, क्योंकि तुम मन नहीं रहते। मन को गिराने के लिए एकांत सुझाया गया है और मन के साथ सब गिर जाता है। एक क्षण आता है जब तुम्हें पता नहीं रहता कि तुम कौन हो; और वही क्षण है जहां से वास्तविक ज्ञान शुरू होगा। यही सबसे कठिन और सबसे महत्वपूर्ण क्षण है और अब कुछ समय के लिए एक अंतराल होगा। यह अंतराल तीव्र व्यथा से भरा होगा, क्योंकि पुराना तो जा चुका और नया अभी आया नहीं है। जब वृक्ष से पुरानी पत्तियां गिरेंगी तो कुछ दिन के लिए वृक्ष नग्न हो जाएगा और बस नई कोंपलों के फूटने की प्रतीक्षा करेगा। नई पत्तियां आ रही हैं, वे रास्ते पर हैं, पुरानी पत्तियों ने जगह खाली कर दी है। अब जगह खाली है तो उस जगह को भरने के लिए नए की यात्रा शुरू हो गई है, देर-सबेर उसका होगा। लेकिन तुम्हें प्रतीक्षा करनी होगी।

एकांत में ध्यान करते-करते समाज छूट जाएगा, मन छूट जाएगा, अहंकार छूट जाएगा और एक अंतराल पैदा होगा। तुम्हें उस अंतराल से भी गुजरना पड़ेगा। अब वृक्ष नई पत्तियों के आने की बाट जोह रहा है लेकिन कोई कुछ कर नहीं सकता। वृक्ष क्या कर सकता है?

उन्हें जल्दी लाने के लिए कुछ नहीं किया जा सकता, वे अपने ही ढंग से आएंगी। और यह अच्छा है कि पुराना छूट गया है, क्योंकि अब जगह खाली हो गई। नए के आविर्भाव के लिए जगह बन गई। अब कोई बाधा न होगी। तो अंतर्मन का भी एक पतझड़ होता है। सारी पत्तियां गिर जाएंगी। एक गहन पीड़ा होगी। तुम उन पुरानी पत्तियों के साथ इतने दिन रहे हो कि तुम्हें लगेगा तुम कुछ खो रहे हो। और फिर प्रतीक्षा का एक शिशिर काल, एक अंतरिक शिशिर काल होगा जब तुम नग्न रहोगे-बिना पत्तियों के आकाश की ओर उम्मुख एक नग्न वृक्ष और तुम नहीं जानते कि क्या होने वाला है। अब सब कुछ ठहर गया है। अब कोई पक्षी तुम्हारी शाखाओं पर गीत गाने नहीं आता। अब कोई तुम्हारी छाया में आराम करने नहीं आता।

अब तुम्हें कुछ पता नहीं है कि तुम मर चुके हो या तुम्हारा कोई नया जन्म होने वाला है। यह बीच का अंतराल है। फिर वसंत आएगा, नई पत्तियां उगेंगी, नया जीवन, नए फूल आएंगे। तुम्हारे भीतर एक नया आयाम खुलेगा। लेकिन पतझड़ और शिशिर को याद रखो केवल तभी वसंत संभव है। पतझड़ भी वसंत का हिस्सा है-यदि तुम समझ सको-वह वसंत के आने का ही मार्ग तैयार कर रहा है। तो पतझड़ वसंत के विरुद्ध नहीं है केवल उसकी शुरुआत है। और वह अंतराल भी जरूरी है, क्योंकि उसमें तुम तैयार होते हो। तुम्हें बस संभलना होता है- होशपूर्वक, समझपूर्वक, प्रेमपूर्वक, आशा से भरे, प्रार्थनापूर्ण, प्रतीक्षापूर्ण और फिर वसंत आएगा। ऐसा सदा हुआ है। मनुष्य भी एक वृक्ष है। और स्मरण रहे, एकांत ही पूर्णता है, वे विरोधाभासी नहीं हैं। अहंकार तो हिस्सा है, एक खंड है। अहंकार पूर्ण के विरुद्ध है। एकांत में अहंकार समाप्त हो जाता है।

ओशो

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