शिव वहां होते हैं, जहां मन का विलय होता है। ईश्वर को पाने के लिए लंबी तीर्थयात्रा पर जाने की आवश्यकता नहीं है, जहां पर हो वहीं बने रहो। तुम जहां हो, वहां अगर तुम्हें ईश्वर नहीं मिलता, तो अन्य किसी भी स्थान पर उसे पाना असंभव है। जिस क्षण तुम स्वयं में स्थित, केंद्रित हो जाते हो, तुम पाते हो कि ईश्वर सर्वत्र विद्यमान है। यही ध्यान है। शिव के कई नामों में से एक है 'विरुपक्ष’- माने जो निराकार है फिर भी सब देखता है।

हमें ज्ञात है कि हमारे चारों ओर हवा है और हम उसे महसूस भी कर सकते हैं, लेकिन अगर हवा हमें महसूस करने लगे तो क्या होगा? अवकाश हमारे चारों ओर है, हम उसे पहचानते हैं लेकिन कैसा होगा अगर वह हमें पहचानने लगे और हमारी उपस्थिति को महसूस करे? ऐसा होता है। केवल हमें इस बात का पता नहीं। वैज्ञानिकों को यह मालूम है और वे इसे सापेक्षता सिद्धांत कहते हैं। जो देखता है और जो दिखता है; दोनों दिखने पर प्रभावित होते हैं। ईश्वर तुम्हारे चारों ओर है और तुम्हें देख रहा है। उसका कोई आकार नहीं है। वह निराकार अस्तित्व का मूल और लक्ष्य है। वह दृष्टा, दृश्य और दृष्टित है। ये निराकार दैवत्व शिव है। ऐसे ही जागृत हो जाना और इस शिव तत्व का अनुभव करना शिवरात्रि है।

साधारणतया उत्सव में जागरूकता खो जाती है। उत्सव में जागरूकता के साथ गहरा विश्राम शिवरात्रि है। जब तुम किसी समस्या का सामना करते हो, तब सचेत व जागृत हो जाते हो। जब सबकुछ ठीक होता है, तब हम विश्राम में रहते हैं; शिवरात्रि में हम जागरूकता से विश्राम करते हैं। कहा जाता है कि जब अन्य सब सो रहे होते हैं, योगी जगा हुआ होता है। एक योगी के लिए हर दिन शिवरात्रि है। अद्यन्तहिनम- जिसका न तो आदि है न अंत; सर्वदा- वह भोलेनाथ है, सबका निर्दोष शासक, जो निरंतर सर्वत्र उपस्थित है।

हमें लगता है शिव गले में सर्प लिए कहीं बैठे हुए हैं। शिव वह है, जहां से सब कुछ जन्मा है, जो इसी क्षण सबकुछ घेरे हुए है, जिनमें सारी सृष्टि विलीन हो जाती है। इस सृष्टि में जो भी रूप देखते हैं, सब उसी का रूप है। वे सारी सृष्टि में व्याप्त हैं। न वे कभी जन्मे हैं, न ही उनका कोई अंत है। वे अनादि हैं। वे चौथे स्तर की चेतना हैं। तुरिया अवस्था। ध्यानस्थ अवस्था जो कि जागृत, गहरी निद्रा और स्वप्नावस्था से परे है। वे अद्वैत चेतना हैं, जो सर्वत्र उपस्थित है इसीलिए तुम्हें शिव पूजा करने के लिए शिव में विलीन हो जाना पड़ेगा। तुम शिव बनकर ही शिव पूजा कर सकोगे। चिदानंद रूप- वह परमानंद चेतना हैं। तपो योगगम्यजो तप और योग से प्राप्त किए जा सकते हैं। वेदों के ज्ञान से शिव तत्व का अनुभव किया जा सकता है। 'शिवोहम’ (मैं शिव हूं) और 'शिव केवालोहम’ (केवल शिव है) का ज्ञान सिद्ध होता है।

शिवरात्रि आनंद और संतोष की लहर का अनुभव करने का दिवस है। योग के बिना शिव का अनुभव नहीं हो सकता। योग का अर्थ केवल आसन करना नहीं है, अपितु प्राणायाम और ध्यान द्वारा शिव तत्व का अनुभव करना है। पंचमुख, पंचतत्व- शिव के पांच रूप हैं: जल, वायु, पृथ्वी, अग्नि, आकाश। इन पांचों तत्वों की समझ तत्व ज्ञान है। शिव को पूजना शिव तत्व में विलीन होना है और फिर कोई शुभेच्छा करना। उदार हृदय से वैश्विक कल्याण के लिए कोई इच्छा करो; संसार में कोई भी व्यक्ति दुखी न रहे: 'सर्वे जन: सुखिनो भवन्तु।‘

साधना, सेवा और सत्संग से दूर होती हैं अशुद्धियां

पृथ्वी के सभी तत्वों में दैवत्व व्याप्त है। वृक्षों, पर्वतों, नदियों और पृथ्वी पर जी रहे लोगों का सम्मान किए बिना पूजा संपूर्ण नहीं है। सबके सम्मान को 'दक्षिणा’ कहते हैं। 'दा’ माने देना। 'दक्षिणा’ का अर्थ है कुछ देना, जो हमें अशुद्धियों से निर्मल कर दे। जब हम किसी भी विकृति के बिना कुशलता से समाज में रहते हैं, क्रोध, चिंता, दु:ख जैसी नकारात्मक मनोवृत्तियों का नाश होता है। अपने तनाव, चिंताएं और दु:ख दक्षिणा के रूप में दे दो और यह होता है, साधना, सेवा और सत्संग से।

— श्री श्री रविशंकर

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