एक बार फिर खुफिया तंत्र नाकाम हो गया. आतंक का सिनानिम बन चुकी मुंमई फिर से दहल उठी. दुनिया भर से आये लोग जब भागती दौड़ती जिन्दगी को किसी तरह जीने की कोशिश कर रहे होंगे, लोकल्स में धक्के खाते हुये अपने सपनों में खोए हुए होंगे, जाब, बिजनेस या आर्ट (जिसके लिये मुम्बई फेमस है) में अपना मुकाम बनाने की सोच रहे होंगे, धमाकों ने ठीक उसी वक्त उन्हें उनके सपनों के साथ शान्त कर दिया. आखिरकार फिर एक बार साबित हुआ कि मुम्बई की ये जादुई दुनिया किसी मायानगरी से कम नही है जहां हर वक्त कुछ ऐसा होता कि लोगों के मन में उसके बाद दहशत और ज्याद गहराई से बैठ जाती है. आखिर जानते हैं कि आखिर कैसे देश की कामर्शिअल कैपिटल बन गई मायानगरी-

तो क्या सुलगती रहेगी मायानगरी

पहली बार अंडरवर्ल्डफ से मुंबई का आमना-सामना 1940 में हुआ. यह वह दौर था जब बड़ी संख्या मे लोग बाहर से काम के सिलसिले में मुंबई पहुंच रहे थे. इस दौरान लोगों ने रहने के लिये चालों में पनाह ली. लीडर्स को चालों में रह रही अपनी इस कम्युनिटी की मदद करके उनका दिल जीतने का मौका मिला और यहीं से माफिया पनपे. 

पहला नोन माफिया पठान करीम लाला था जिसने 1940 के दशक में शराब और जुए के कारोबार के सहारे अपना साम्राज्य  खडा किया. एंटी गैंबलिंग ला की वजह से कारोबारियों को इसे इल्लीगली रन करने के लिये माफिया का सहारा लेना पड़ता था. जिसका फायदा करीम लाला ने उठाया. उसने इसी बीच जिर्गा-ए-हिन्द पठान नाम की एक पार्टी भी बनाई. ऐसा माना जाता है कि इसके लिये उसने फेमस फ्रीडम फाइटर खान अब्दुल गफ्फार खां की ब्लेसिंग्स ली थीं.

तो क्या सुलगती रहेगी मायानगरी

लाला के बाद माफिया का ताज वरदाराजन मुदालियर उर्फ ‘वर्धा’ के सर आ गया. मुदालियर एक तमिल माइग्रेंट था जो अपने साथ बहुत सारे साउथ इंडियन लेबर्स लेकर आया था. एक पाटर के तौर पर अपना करियर स्टार्ट कर वर्धा जल्द ही बूटलेगिंग और सट्टे के कारोबार में आया. कुछ ही समय बाद सुपारी किलिंग, स्मगलिंग और वसूली कर वर्धा 70 के दशक का सबसे पावरफुल डान बन गया. उस समय की सोशलिस्ट गवर्नमेंट का इकानमी पर डाला गया रिस्ट्रिक्शन माफियाओं को खूब भाया और उन्होने जम कर कालाबाजारी की. धीरे धीरे इन माफियाओं का इंफ्लुएंस पूरे मुम्बई पर देखा जाने लगा. पालिटिक्स, बिजनेस और सिनेमा हर जगह माफियाओं का दखल था. मुम्बई इस समय तक माफियाराज से पूरी तरह परेशान था. 

इसी बीच मस्तान मिर्जा भी ‘की रोल’ मे आ गया. मस्तान मिर्जा यानि हाजी मस्तान यानि 'बावा'. उसके फिल्म इंडस्ट्री में दखल की वजह से उसकी पापुलैरिटी भी तेजी से बढ़ी. 1975 में इंमर्जेन्सी के दौरान एक और शख्स हाजी मस्तान माफियाडान बनने की लाइन मे था और जेल काट रहा था. इस सब का फायदा उसे पालिटिकल कान्टैक्ट्स मेंटेन करने में भी मिला. जेल में उसने हिन्दी सीखी और जेल के बाहर बोलना. इसके बाद वह एक मुस्लिम लीडर बन कर उभरा और 1985 में उसने एक पार्टी भी बनाई. कुली के काम से भाईगिरी और फिर किलिंग, स्मगलिंग और अन्डरवर्ड तक के इस सफर मे हाजी मस्तान ने मुम्बई का आइना ही बदल दिया. माना जाता है कि मस्तान ने राजकपूर, संजीव कुमार, सलीम खान और अमिताब बच्चन से अपने दोस्ताना सम्बन्धों के जरिये बालीवुड के बिजनेस पर भी अपनी मजबूत पकड़ बना रखी थी. 

1980 का आलम यह था कि ये डान मुम्बई में पैरलल गवर्नमेंट रन कर रहे थे. कोई ऐसा कारोबार नहीं था जिसपर माफिया का कब्जा न हो. एडमिनिस्ट्रेशन इनके इशारों पर नाचता था और गवर्नमेंट इनकी धुन बजाती है. अन्डरवर्ड के पास बेतहासा पैसा आ रहा था. यह पैसा फिल्मों में भी लग रहा था और पालिटिक्स में भी. इन तीनों डानों के रेजीम तक एक अच्छी बात  थी कि माफियागिरी का कम्यूनलाइजेशन नही हुआ था. मगर बाद मे नौबत और खराब हो गई. 

तो क्या सुलगती रहेगी मायानगरी

1980 के दशक में मुम्बई मे काटन मिल्स बन्द होना शुरू हो गईं और हजारों लोग बेरोजगार हो गए. इनसे निकले बेरोजगारों को माफियाओं ने अपने लिये इस्तेमाल करना शुरू कर दिया. इस सबके बीच कई नए डान भी पैदा हो गए. इसी समय दाउद अब्राहिम ने भी अपनी डी-कम्पनी बना डाली. इस कम्पनी ने अपराध जगत का कोई भी काम नही छोड़ा. स्मगलिंग, मर्डर, वसूली, कान्ट्रैक्ट किलिंग और ऐसे तमाम कामों को डी-कम्पनी ने कुछ इस कदर अंजाम दिया कि यह दुनिया का सबसे पावरफुल क्रिमिनल आर्गनाइजेसन बन गया. दाउद के साथ उसके कई खतरनाक शागिर्द भी पनप रहे थे. छोटा शकील और छोटा राजन ने दाउद के साथ मिलकर अपनी तिकड़ी बनाई और पूरे मुम्बई को अपने इशारों पर नचाना शुरू कर दिया. इसने कम्युनल वाइलेंस को भी खूब बढ़ावा दिया.

दाउद की इस कम्पनी को 1992 में जबरजस्त घाटा हुआ. इनकी कंपनी 198 किलो गोल्ड स्मगलिंग के जरिये इंडिया लाई थी. इसी बीच गोल्ड ट्रेडिंग पर सरकार ने अपने नियमों मे ढील दे दी और सोने के भाव अचानक ही गिर गये. दाउद तबाह हो गया. इसकी भरपाई के लिये दाउद एंड कंपनी ने आएसआई के साथ समझौता कर लिया. माना जाता है कि अंडरवर्ड उस समय बुरी तरह फाइनेंशियल क्राइसिस झेल रहा था. आईएसआई, जो उस समय गल्फ से इंडिया के वेस्ट कोट को कंट्रोल कर रही थी, ने दाउद से डिमांड की कि इस घाटे के बदले में वह वैपन्स और एक्सप्लोसिव्स को इंडिया तक पहुंचाए. दाउद जानता था कि अगर ऐसा नहीं किया गया तो पाकिस्तान के रास्ते होने वाला उसका बिजनेस ठप्प हो जायेगा. उसने आईएसआई की बात मान ली. 

दाउद अपने पिछले डानों की तरह सेक्युलर नहीं था. वो जानता था कि अगर अपराध जगत में बने रहना है तो मुद्दे ढूंढ़ने होंगे. बाबरी ढांचा गिराए जाने के बाद उसके भाई अनीस और गैंग के बेहद करीबी मेंबर्स ने उसपर बदला देने का दबाव डाला. फाइनेन्शियल क्राइसिस से गुजर रहे डान ने आखिरकार तय किया कि वह इसके लिये पब्लिक सपोर्ट जुटाएगा. आएसआई के साथ मिलकर कंपनी ने मुम्बई मे एक जाल बिछाया. टाइगर मेमन ने इसमें सेंटर रोल अदा किया. 12 मार्च 1993 को मुम्बई में एक साथ 13 बम धमाके हुए. पूरा मुम्बई इन धमाकों से सहम गया. पूरी मुंबई में कम्युनल रायट्स भड़क गये. पुलिस से लेकर इंटेलीजेन्स एजेन्सीज और मीडिया सभी ने दाउद और उसकी डी-कम्पनी को इसके लिये जिम्मेदार ठहराया. इसी वजह से बाद में कम्पनी में दो फाड़ हो गए. दाउद का खास सरगना छोटा राजन उससे अलग हो गया और उसने राइट विंग हिन्दू नेस्नलिस्ट पार्टीज का सपोर्ट अपने साथ जुटा लिया. दाउद पर चौतरफा दबाव पड़ने लगा, वह मुम्बई छोड़कर दुबई चला गया और वहीं से अपना बिजनेस आपरेट करने लगा.  

तो क्या सुलगती रहेगी मायानगरी

1993 तो बस शुरूआत थी. मुंबई मे आग लग चुकी थी. ऐसी आग जिसे बुझना ही नहीं था. अब माफिया सरगना जान चुके थे कि हिन्दू मुस्लिमों को आपस में लड़ा कर वो इस आग से अपनी रोटियां सेंक सकते है. छोटा राजन कट्टरपंथी हिन्दू संगठनों के साथ मिल गया तो दाउद अब्राहम ने भी मुंबई धमाकों का क्रेडिट लेकर उन आतंकी सरगनाओं से करीबी बढ़ा ली जो खुद को मुस्लिम समुदाय के वेलविशर कहते हैं. आये दिन धमाके और हिंसक घटनाएं होती रहीं. दाउद ओसामा बिन लादेन और अलकायदा का बेहद करीबी बन गया और कुछ ही समय में इंटरनेशनल टेररिज्म मे की रोल मे आ गया. 2003 में दाउद को अमेरिका ने ‘इंटरनेशनल टेररिस्ट’ डिक्लेयर कर दिया. 

छोटा राजन और डी कम्पनी की आपसी दुश्मनी भी बाद के सालों में देखने मे मिली है. गैंगवार्स में दोनों ओर के कई शूटर्स और माफिये मारे गए है. 2001 में सुनील सोअन और विनोद शेट्टी की हत्या ने दाउद के महकमे में खलबली मचा दी थी. बाद में शरद शेट्टी के मर्डर से यह इस बात की डिबेट शरू हो गई कि आखिर मुम्बई का असली डान कौन है. हर ओर वसूली और दबदबे की बिसाते बिछ रही थीं. एक दूसरे के सपोर्टर्स मारे जा रहे थे और आम मुम्बइकर्स हैरान थे कि आखिर साथ दें तो किसका. पुलिस और इंटेलीजेन्स एजेन्सियां भी यही चाहती रहीं कि दोनों गैंग आपस में ही लड़े और उसे बिल्ली मौसी की तरह दोनों ही तरफ से फायदा होता रहे. कई बार ऐसे खुलासे हुए कि इंडिया की तमाम इन्वेस्टीगेटिव एजेन्सियां राजन तक दाउद की इंफार्मेशन पहुंचा रही है. सिलसिला यूं ही चलता रहा और मर्डर्स होते रहे.

Reported by- Alok Dixit

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