एक नई रिपोर्ट में संगठन का कहना है कि पारंपरिक वेशभूषा पहनना मुसलमानों के शिक्षा और व्यवसाय के अवसर कम करता है। कई यूरोपीय देशों में मुसलमान महिलाओं के बुर्का पहनने पर पाबंदी की आलोचना करते हुए ‘एमनेस्टी’ ने इन सरकारों को मुसलमानों के प्रति बने पूर्वाग्रहों और अवधारणाओं के बारे में सही जानकारी फैलाने की अपील की है।

संगठन के यूरोप औऱ मध्य एशिया के निदेशक जॉन डलहुइजेन ने कहा, “हमारे लिए चिंता की बात ये है कि यूरोप में सरकारें और सार्वजनिक उपक्रम इस भेदभाव को कम करने के लिए पर्याप्त प्रयास नहीं हो रहे बल्कि अक्सर इसे बढ़ावा दिया जा रहा है.”

रिपोर्ट में बेल्जियम, फ्रांस, नीदरलैन्ड्स और स्पेन में मुसलमान महिलाओं के नकाब पहनने पर और वर्ष 2009 में स्विट्जरलैंड में मीनारों पर लगाई रोक का उल्लेख किया गया है। साथ ही कई देशों में बच्चों पर स्कूल में नकाब पहनने या पारंपरिक पोशाक पहनने पर पाबंदी लगाने वाले नियमों की भी चर्चा है।

‘वोटबैंक की राजनीति’

लंदन विश्वविद्यालय में इतिहास पढ़ा रहे प्रोफेसर हुमायूं अंसारी के मुताबिक इस चलन के लिए काफी हद तक यूरोपीय देशों के बड़े नेता जिम्मेदार है।

बीबीसी से विशेष बातचीत में अंसारी ने कहा, “चाहे फ्रांस के निकोला सार्कोजी हों, जर्मनी की एंगेला मर्केल या ब्रिटेन के डेविड कैमरन, ये सभी समझते हैं कि उनके देशों की ज्यादातर आबादी में मुसलमान-विरोधी अहसास पनप रहा है, तो वोटबैंक की राजनीति में वो इस भावना को बढ़ावा देते हैं.”

‘एमनेस्टी इंटरनेश्नल’, बेल्जियम, फ्रांस और नीदरलैंड की सरकारों पर, नौकरियों में ऐसे भेदभाव को गैरकानूनी ठहराने वाले कानूनों को सही तरीके से लागू ना करने का आरोप भी लगाती है।

रिपोर्ट में बताया गया है कि कंपनी के मालिकों को धर्म या धार्मिक प्रतीकों का इस्तेमाल करने वालों के साथ इस बिनाह पर भेदभाव करने दिया जाता है कि इसका सहकर्मियों, ग्राहकों या कंपनी की छवि पर बुरा असर पड़ सकता है।

‘अभिव्यक्ति की आजादी’

संगठन के भेदभाव विशेषज्ञ मार्को पेरोलिनी का कहना है, “धार्मिक और सांस्कृतिक प्रतीक या पोशाक पहनना अभिव्यक्ति की आजादी के अधिकार का हिस्सा हैं और ये अधिकार सबको मिलने चाहिए.”

रिपोर्ट के मुताबिक नकाब पर पाबंदी को सुरक्षा कारणों से सही नहीं ठहराया जा सकता जबतक कि ये किसी सुरक्षा जांच का हिस्सा ना हो।

हुमायूं अंसारी के मुताबिक मुस्लिम समुदाय में बढ़ते चरमपंथ की वजह से उनकी ओर भय का माहौल तो बनना लाजमी है लेकिन इस अवधारणा को सही करने के लिए “मुसलमान समुदाय के नेताओं को आगे आना होगा.”

हालांकि अंसारी का ये भी मानना है कि सोच-विचार और अभिव्यक्ति की आजादी के सिद्धान्तों पर नाज करनेवाले यूरोपीय देशों की सरकारें भी अगर इन पूर्वाग्रहों को बदलने के प्रयास नहीं करतीं तो उन्हें इससे नुकसान हो सकता है।

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