No rain, more pain

'कब तक सूखे धरती आंखें तरस गईं, बादल तो न बरसे आंखें बरस गईं, कौन जतन करुं कौन उपाय, एक ऋतु आए, एक ऋतु जाए, मौसम बदले ना, बदले नसीब'। ये फिल्मी सॉन्ग आज के सीजन में बिलकुल फिट है। जिस जुलाई में लोग बारिश, कीचड़, जलजमाव को लेकर रोते थे, उस जुलाई के शुरू होने के तीन दिन बाद भी हर कोई आसमान की ओर ताक रहा है। इस उम्मीद में कि शायद कोई बादल का टुकड़ा आए और तन-मन को भीगो जाए। मगर ये बादल, बस मानो मुंह चिढ़ा रहे हैं।

 

माहौल है मगर मेहरबानी नहीं

अपने बनारस में मॉनसून सीजन की शुरुआत 15 जून से हो चुकी है। ये बात अलग है कि मॉनसून ने अपने शहर में छह दिन लेट से दस्तक दी। मगर इस दस्तक के बाद एक दो-बार ही बूंदों के गिरने की आवाज सुनाई दी मगर उसके बाद से ऐसा सन्नाटा पसरा है कि पूछिये नहीं। मौसम विज्ञानी भी हैरान हैं। जून के लास्ट वीक में बारिश के लिए कोई सपोर्टिंग सिस्टम नहीं था। ऐसे में बारिश न होना हैरानी की बात नहीं थी। मगर अब हैरानी इसलिए है कि बारिश के लिए सपोर्टिंग माहौल भी है, फिर भी बारिश नहीं हो रही है। इस बारिश के न होने का ही नतीजा है कि आज हर कोई परेशान है। तमाम तरह की प्रॉब्लम्स मुंह उठाने लगी हैं और खेती पर ही नहीं, बिजनेस पर भी बुरा इफेक्ट आ चुका है।

उड़ीसा से मिल रहा सपोर्ट

बीएचयू के मौसम विज्ञानी प्रो। एसएन पाण्डेय की मानें तो पिछले दो-दिनों से बंगाल की खाड़ी के पास उड़ीसा कोस्ट में लो प्रेशर एरिया बना हुआ है। इससे काफी नमी भरी हवा पूर्वांचल की ओर आ रही है। कुछ राज्यों जैसे बिहार, झारखण्ड में बारिश भी हुई है मगर बादलों की मेहरबानी से अभी बनारस अछूता है। प्रो। पाण्डेय मानते हैं कि बनारस मानो हीट आइलैंड बन चुका है। इसी वजह से हवा में करीब 70 परसेंट ह्यूमिडिटी लेवल होने के बावजूद बारिश नहीं हो रही है। अब यदि 90 परसेंट तक ह्यूमिडिटी बढ़े तो शायद बारिश नसीब होगी। तब तक लोगों को गर्मी और उमस की मार झेलनी पड़ेगी।

मॉनसून ने किसानों को किया मायूस

मॉनसून के नखरे किसानों को भा नहीं रहे हैं। बादलों की आवाजाही देख उनकी सांसें भी धीमे और तेज हो रही हैं। आखिर उनके मेहनत की कमाई जो दाव पर लगी है। किसान पिछले दो हफ्ते से बारिश का इंतजार कर रहे हैं। जमीन सूखी होने से उनकी धान की बेहन सूखने के कगार पर आ पहुंची है। डेली डीजल खर्च कर वे उसे जिला रहे हैं। कृषि वैज्ञानिक प्रो। आरपी सिंह की मानें तो धान की फसल का लेट होना तय है। खेती में डेली दो से तीन परसेंट का नुकसान हो रहा है। दस जुलाई तक यदि अच्छी बारिश नहीं हुई तो यह नुकसान 25 परसेंट तक पहुंच जाएगा। सब्जियों का तो भारी नुकसान हो रहा है। किसान इतने मायूस हो चुके हैं कि अब खरीफ की दूसरी फसलों का विकल्प तलाशने लगे हैं। वहीं डीएपी और यूरिया की भी डिमांड कम हो गयी है। जबकि इस समय यूरिया और डीएपी के लिए मारामारी मच जाती थी।

सूने हो गए picnic spots

सावन का महीना पवन करे शोर, जियरा रे झूमे ऐसे जैसे वन में नाचे मोर। बॉलीवुड में यह गाना ऐसे ही नहीं गूंजने लगा। सावन ऐसा मस्ताना मौसम ही है। काले मेघ से धरती पर बरसती बूदें जब इंसान के बदन को छूती हैं तो वाकई मन मयूर की तरह नाच उठता है। इस मौसम में मौज-मस्ती भी खूब भीड़ होती है। इसी वजह से सावन में मेले की परम्परा भी शुरू हुई। लेकिन बादलों के रूठने से मन का मयूर मायूस हो गया है। वह मौज-मस्ती के लिए चिलचिलाती गर्मी से बचने के ठौर ढूंढने में परेशान है। हर बार की तरह इस साल भी सारनाथ, दुर्गाकुंड समेत कई स्थानों पर मेला लगने लगने लगा है। पिकनिक स्पॉट्स पर भी दुकानें सज गई हैं लेकिन रौनक कहीं नहीं है। इन स्पॉट्स और मेलों में किसी की रुचि नहीं दिखायी दे रही है। इससे मेला और झूला संचालक मायूस हैं। उनकी साल भर की कमाई इसी मेले से होती है। उन्हें डर है कि बरसात नहीं हुई तो मेला फीका रह जाएगा और उन्हें इनकॉमिकली काफी नुकसान उठाना पड़ेगा।

बहुत कठिन राह भोले की

सावन का पवित्र महीना शिव भक्ति के लिए सबसे मुफीद है। इस महीने में लाखों शिव भक्त शिवालयों में शीश नवाते हैं। बड़ी संख्या में शिवभक्त बारह ज्योर्तिलिंगों में शामिल काशी विश्वनाथ के दरबार में भी पहुंचते हैं। इनमें कई ऐसे होते हैं जो सौ किलोमीटर से अधिक की दूरी से गंगा जल लेकर नंगे पैर पैदल मंदिर तक पहुंचते हैं और शिवलिंग पर जल अर्पित कर अपने आराध्य को प्रसन्न करते हैं। इन्हें कांवरिया कहते हैं। कांवरियों की यह तपस्या इस बार और कठिन होगी। सावन में भी पारा 40 के पार है। तारकोल की रोड्स अंगारे की तरह तप रही हैं। इन पर नंगे पैर चलने के बारे में कोई मजबूत दिल इंसान ही सोच सकता है। तेज धूप मेंहर समय गला सूखा ही रहता है। दो कदम चलना मुश्किल है। सौ किलोमीटर का सफर तो भगवान भरोसे ही संभव है। वहीं काशी विश्वनाथ मंदिर में दर्शन के लिए घंटों लाइन लगानी होती है। इसमें कई लोग गश खाकर गिर पड़ते हैं तो भला इस मौसम में क्या होगा, भगवान ही जाने. 

स्टूडेंट्स को हुई राहत तो परेशानी भी

गर्मी को देखते हुए डीएम ने स्कूल्स की टाइमिंग तो चेंज कर दी लेकिन इस बदले टाइमिंग से स्टूडेंट्स को थोड़ी राहत मिली तो परेशानी भी हुई। जहां पहले कई स्कूल्स दो शिफ्ट्स में चलते थे तो नये ऑर्डर के बाद एक ही शिफ्ट में चलाना पड़ रहा है। ऐसे में एक ही क्लास के दो से तीन सेक्शंस के बच्चों को एक ही क्लास में एडजस्ट कर दिया गया है। स्कूली बसों में भी से कंडीशन है। बसों में पहले से अधिक बच्चों को लादकर स्कूल पहुंचाना पड़ रहा है। दोनों शिफ्ट्स का एक समय हो जाने की वजह से ऑटो वाले अब छोटे बच्चों को स्कूल ले जा रहे हैं जबकि बड़े क्लासेज के स्टूडेंट्स को अपने साधन से स्कूल जाना पड़ रहा है। ये दिक्कत सात जुलाई तक तो स्टूडेंट्स को झेलनी ही पड़ेगी।

बारिश हुई न बोहनी

मॉनसून के आने का सही वक्त होता है 15 से 20 जून। इसी को बारिश का टाइम मानते हुए मार्केट में भी तैयारियों का दौर शुरू हो जाता है। रेनकोट, छाता, बरसाती चप्पलें, वॉटर प्रूफ बैग्स, सीट कवर बेचने वालों की इस दौरान ठीक-ठाक कमाई हो जाती है। इसी बिजनेस के सहारे बहुतों की साल भार की रोजी-रोटी की व्यवस्था हो जाती है। लेकिन इस बार 30 जून बीतने के बाद भी बारिश न होने से अपने बनारस के मार्केट का हाल बेहाल है। बारिश से बचने के लिए साजो सामान बेचने वालों की बोहनी तक नहीं हुई है। वे माथे पर हाथ रखकर आसमान की ओर टकटकी लगाए भगवान से यही प्रार्थना कर रहे हैं कि मालिक पानी दे ताकि हमारी भी रोजी-रोटी चल सके।

शासनादेश ने बढ़ा दी मुसीबत

बारिश का सीजन अपनी यूपी सरकार के लिए टेंशन का मौसम होता है। लेकिन इस टेंशन को हल्का करने के चक्कर में जारी हुए एक शासनादेश ने पब्लिक की मुसीबतों को बढ़ा दिया है। हर साल बारिश से गंगा में बढ़ाव के डर से सामनेघाट से रामनगर को जोडऩे वाले पीपा पुल को 15 जून की मध्यरात्रि में तोड़ दिया जाता है। इस बार भी ऐसा ही हुआ लेकिन अब तक न तो बारिश हुई और न ही गंगा का वॉटर लेवल चढ़ा। ऐसे में पीपा पुल के टूटने से पब्लिक को हाईवे एनएच- 2 से होते हुए रामनगर तक पहुंचना पड़ रहा है।

गंगा भी थम गई सीढिय़ों तक

हर साल जुलाई के फस्र्ट वीक में गंगा अपने रौद्र रूप में आ जाती थी। घाटों की सीढिय़ों से होते हुए गंगा की लहरें घाट किनारे बसे घरों और मंदिरों तक में पहुंच जाती थी लेकिन इस बार मॉनसून के लेट होने से गंगा ने भी अपने को शांत कर लिया है। पिछले साल के मुकाबले अगर इस साल के आंकड़ों पर गौर करें तो गंगा का वॉटर लेवल लगभग 63 से 65 मीटर तक नीचे है। जो इस मंथ में देखने को नहीं मिलता। जानकारों की मानें तो अगर आने वाले कुछ और दिनों में मैदानी इलाकों में पानी नहीं गिरा तो गंगा का जलस्तर अपने सामान्य स्तर से और नीचे चला जायेगा।

गर्मी में बिजली बना रही 'mental'

सूरज चाचा अपनी तल्खी को कम करने के मूड में नहीं है और बादलों ने न जाने किस तरफ अपना रुख कर लिया है। दूर-दूर तक बारिश का कोई अता-पता नहीं है। मौसम की बदमिजाजी पर बिजली की आंख मिचौली कोढ़ में खाज का काम कर रही है। कब तक रहेगी, कब चली जायेगी कुछ पता नहीं। लोगों का खाना, सोना सब हराम है। खास बात यह कि बिजली की बेअंदाज कटौती लोगों के मेंटल स्टेटस को प्रभावित करने लगी है। दिन में लोग अपना काम पूरा नहीं कर पा रहे हैं और रात में बिजली कटौती चैन की नींद लेने नहीं दे रही है। लहुराबीर के कमलेश बिजली के इस बदइंतजामी का शिकार हैं। पिछली रात बिजली के चलते पूरी नींद नहीं ले सके। इसका नतीजा उन्हें पूरे दिन सिरदर्द के रूप में झेलना पड़ा। कुछ ऐसे ही हालात रामकटोरा के राजेश कुमार के साथ भी है। नींद पूरी न होने का असर उनके बिजनेस पर दिखाई दे रहा है। काम में मन ही नहीं लगा पा रहे हैं। यह दर्द सिर्फ एक या दो लोगों की नहीं है, बिजली शहर के तकरीबन हर किसी को इसी तरह की परेशानी दे रही है। विभाग का दावा है कि 20 घंटे बिजली दे रहे हैं लेकिन हकीकत में बिजली मिल रही है 12 से 14 घंटे। कभी मेन कटौती तो कभी लोकल कटौती के नाम पर बिजली के जाने का खेल लगातार जारी है जो लोगों को मानसिक रोगी बना रहा है। सोमवार को भी शहर के तकरीबन हर इलाके में जबरदस्त कटौती हुई।

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व्यक्ति को कम से कम  छह घंटे की नींद चाहिए। इससे कम की स्थिति में उसमें आक्रामक व्यवहार, सिरदर्द, चिडचिड़ापन, काम में मन न लगना जैसे विकारो के लक्षण दिखाये देने लगते हैं। मेरे पास कई ऐसे पेशेंट्स आ रहे हैं जिनमें इस तरह के लक्षण पाये गये हैं। बिजली की आवाजाही लोगों के मानसिक रोगी बना रहा है।

- डॉ अजय तिवारी, क्लिनिकल साइकोलॉजिस्ट