- व‌र्ल्ड डिसएबिल्टी डे स्पेशल - हजारों सरवाइवर्स की जिंदगी बेहतर करने के लिए नहीं उठ पा रहा है कोई कदम - अर्ली एज में होने वाला इंसेफेलाइटिस काफी खतरनाक GORAKHPUR: इंसेफेलाइटिस, गोरखपुर जिले में इस बीमारी का कहर कई दशकों से चला आ रहा है। इससे जहां हजारों मासूम काल के गाल में समा गए, वहीं जो बच गए वह भी 'जिंदा लाश' की तरह ही है। वह सिर्फ सांस ले रहे हैं, जिंदगी में जरूरी बाकी चीजों के लिए वह बिल्कुल भी तैयार नहीं हैं। सरकार और जिम्मेदार सिर्फ मौत के आंकड़ों पर ही नजर गढ़ाए हुए है, उन्हें सिर्फ इस बात की फिक्र है कि कैसे मौत के आंकड़ों को कम किया जाए, लेकिन इस बात का किसी को भी ख्याल नहीं है कि जो इंसेफेलाइटिस से जिंदगी की जंग जीत चुके हैं, अब उन्हें कैसे बेहतर जिंदगी मुहैया कराई जाए? गोरखपुर यूनिवर्सिटी के सोश्योलॉजी डिपार्टमेंट की ओर से की गई रिसर्च में यह सामने आया है कि गोरखपुर में करीब 16 हजार ऐसे सरवाइवर्स हैं, जो आज भी अपनी जिंदगी जीने के लिए पूरी तरह अपने घर पर ही डिपेंड है, लेकिन जिम्मेदार आंख-मुंह बंद कर तमाशबीन बने हुए हैं। बेसिक बिहेवियर भी नहीं जानते मासूम इंसेफेलाइटिस सरवाइवर्स यानि वह लोग जो इंसेफेलाइटिस से जूझने के बाद ठीक होकर अपने घरों को वापस पहुंच गए है। ऐसे लोगों का मेंटल डेवलपमेंट या तो पूरी तरह से रुक चुका है या फिर उसकी स्पीड इतनी स्लो है कि वह किसी छोटी सी चीज को जानने और समझने में काफी वक्त लगा देते हैं। मिसाल के तौर पर सैंपल बिहेवियर है, जिसमें बटन बंद करने से लेकर जूते का फीता बांधने और ब्रश करने जैसी बुनियादी बातें शामिल हैं। स्टडी में यह भी सामने आया है कि इस बीमारी में ब्रेन ही डैमेज होता है, जिससे उनके सोचने समझने की क्षमता बिल्कुल खत्म हो जाती है। जितनी जल्दी ट्रीटमेंट मिल जाए, बचने और डैमेज के चांसेज उतने ही कम हो जाते हैं। कम उम्र वाले ज्यादा शिकार साइकोलॉजिस्ट प्रो। धनंजय कुमार ने बताया कि इस बीमारी की चपेट में यूं तो सभी उम्र के बच्चे आते हैं, लेकिन सबसे ज्यादा असर कम उम्र के बच्चों पर पड़ता है। उन्होंने बताया कि जितनी कम उम्र में इंसेफेलाइटिस होगा और ट्रीटमेंट मिलने में जितनी देर होगी, डैमेज के चांसेज उतने ही ज्यादा हैं। बच्चों के पैदा होने के बाद उनके दिमाग का विकास होना शुरू हो जाता है। 10-12 साल की उम्र तक यह सिलसिला जारी रहता है, लेकिन अगर इस बीच बच्चे इस बीमारी की चपेट में आ जाते हैं, तो इससे उनके दिमाग का विकास पूरी तरह से प्रभावित होता है, जिससे उनके सोचने और समझने की शक्ति पूरी तरह से खत्म हो जाती है। इसमें आती है प्रॉब्लम - सीखने में - बोलने में - एग्जिक्यूटिव फंक्शन यानि कि प्लानिंग में - इमोशन रेग्युलेशन में - टेंपर मैनेजमेंट में - दूसरों के साथ एडजस्ट करने में ऐसे हो सकता है डैमेज कंट्रोल - रेग्युलर ट्रेनिंग और काउंसिलिंग के जरिए - स्पेशल एजुकेशन प्रोवाइड कराकर - रीहैबिलिटेशन - अगर कोई नॉर्मल व्यक्ति किसी चीज को एक घंटे में सीख जाता है, तो इंसेफेलाइटिस सरवाइवर्स को इसे सीखने में डेढ़ से दो मंथ का वक्त लग सकता है। - पेरेंट्स को भी रखना होगा पेशेंस बॉक्स - नाम का है 'पुनर्वास केंद्र' इंसेफेलाइटिस सरवाइवर्स के लिए बने पुनर्वास केंद्र की हालत भी ठीक नहीं है। यह इनकी देखभाल करने के नाम पर सिर्फ कोरम पूरा कर दिया जाता है। सही मायने में देखा जाए तो हर बच्चे की अपनी अलग प्रॉब्लम होती है, उसकी अलग कहानी है। लेकिन वहां के जिम्मेदार बगैर किसी का बैकग्राउंड जांचे, बगैर पेरेंट्स से फीडबैक लिए ही सिर्फ बुनियादी चीजें सिखाने में जुट जाते हैं, जिससे बच्चों को कोई खास फायदा नहीं होता। हां, वहां पेरेंट्स को तसल्ली जरूर हो जाती है कि मेरे बच्चा अब कुछ सीख रहा है और कम से कम अपना काम करने के काबिल बन जाएगा। इंसेफेलाइटिस सरवाइवर्स के पेरेंट्स को अपने बच्चों पर खास ध्यान देना होगा। बिना समय दिए और बिना पेशेंस के बच्चों को बिहेवियर नहीं सिखाया जा सकता। क्योंकि इस बीमारी का असर ब्रेन पर ही होता है, इसलिए बच्चों का दिमाग काफी स्लो हो जाता है, जिससे उन्हें सीखने में काफी वक्त लगता है। - डॉ। धनंजय कुमार, साइकोलॉजिस्ट बच्चों पर इंसेफेलाइटिस का कितना असर होगा, यह बच्चे की उम्र और उसे मिलने वाले ट्रीटमेंट पर डिपेंट करता है। जितनी जल्दी बच्चे को ट्रीटमेंट मिलेगा और उसकी उम्र जितनी ज्यादा होगा। प्रॉब्लम उतनी ही कम होगी। वहीं पीडि़त को स्पेशल एजुकेटर्स और रेग्युलर ट्रेनिंग के जरिए बेहतर बनाया जा सकता है। - डॉ। अनुभूति दुबे, साइकोलॉजिस्ट