वर्ष 1970 और 1977 में मतदान तक़रीबन 60 प्रतिशत रहा था और उसके बाद होने वाले छह आम चुनाव में वोटिंग 35 से 45 प्रतिशत के बीच ही रही है.

साल 1997 के चुनाव में जब मुस्लिम लीग (एन) ने दो तिहाई बहुमत हासिल किया, उस समय कुल 35.2 प्रतिशत मतदान हुआ था.

वहीं 1988 से 2008 तक होने वाले अन्य पाँच चुनाव में मतदान 41 प्रतिशत से ऊपर रहा है.

'मतदान का प्रतिशत अधिक रहेगा'

चंद रोज़ के बाद 11 मई को होने वाले चुनाव के बारे में कुछ जानकारों का मानना है कि वोटिंग का प्रतिशत साठ या उससे अधिक हो सकता है.

चार करोड़ से अधिक जाली वोटरों के नाम लिस्ट से हटाए गए है लेकिन उससे कहीं अधिक नए वोटरों के नाम भी सूची में शामिल हुए हैं.

इस बार नौजवान चुनावी सरगर्मियों में पिछली बार के मुक़ाबले ज़्यादा बढ़-चढ़कर हिस्सा ले रहे हैं.

जानकारों का मानना है कि अगर वोटिंग का प्रतिशत 60 या उससे अधिक रहा तो पूर्व क्रिकेटर इमरान ख़ान के राजनीतिक दल तहरीक-ए-इंसाफ़ को ज़बरदस्त कामयाबी हासिल हो सकती है.

लेकिन अभी ये कहना मुश्किल है कि वो अकेले सरकार बना पाएंगे या नहीं.

इमरान ख़ान जिस तरह 'सोलो फ्लाई' कर रहे हैं और जमात-ए-इस्लामी के अलावा सबको बुरा भला कह रहे हैं, ऐसे में ये सवाल अहम है कि वो हुकूमत किसके साथ मिलकर बनाएंगे?

'किसी को बहुमत नहीं'

अगर मतदान 50 प्रतिशत से कम रहेगा तो किसी भी पार्टी को बहुमत नहीं हासिल होगा और इस स्थिति में त्रिशंकु संसद वजूद में आ सकती है.

इसका नतीजा ये होगा कि जो भी सरकार बनेगी वो अस्थिर होगी और पांच साल का कार्यकाल शायद ही पूरा कर पाए.

पहले राजनीतिक दलों के जलसे जुलूस और सरगर्मियां देखकर चुनाव से चंद दिन पहले तक ये अंदाज़ लगा लेना बहुत आसान होता था कि हवा का रुख़ किस तरफ़ है और जीत किसकी होगी.

लेकिन इस बार पक्के तौर पर ये कह पाना मुश्किल है कि ऊंट किस करवट बैठेगा.

तालिबान की धमकियों और हमलों की वजह से तीन बड़ी राजनीतिक पार्टियां - पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी, मुत्तहिदा क़ौमी मूवमेंट और अवामी नेशनल पार्टी का चुनावी प्रचार सीमित है.

तीनों बड़ी चुनावी रैलियां आयोजित नहीं कर पा रहीं हैं और उन्हें शिकायत है कि उनका रास्ता रोका जा रहा है.

'सेर पर सवा सेर'

चुनावी सरगर्मियों के नज़रिए से पाकिस्तान तहरीक-ए-इंसाफ़ के प्रमुख इमरान ख़ान और मुस्लिम लीग (एन) के सुप्रीमो नवाज़ शरीफ़ के बीच टक्कर नज़र आती है.

सिंध और बलूचिस्तान में दोनों का प्रचार सीमित रहा है. लेकिन पंजाब और ख़ैबर पख़्तूनख्वाह में इस मामले पर वो 'सेर पर सवा सेर' साबित हो रहे हैं.

ख़ैबर पख़्तूनख्वाह में मुस्लिम लीग (एन) का सबसे बड़ा गढ़ हज़ारा डिवीज़न समझा जाता रहा है लेकिन वहां इमरान ख़ान के चुनाव प्रचार के बाद से हालात बदल गए हैं और कांटे का मुक़ाबला देखने को मिल रहा है.

कई लोग तो कह रहे हैं कि वहां पाकिस्तान तहरीक-ए-इंसाफ़ को मुस्लिम लीग (एन) पर बढ़त हासिल है.

पाकिस्तान की आधी से ज़्यादा आबादी वाला पंजाब मुस्लिम लीग (एन) के गठन के बाद से ही उसका मज़बूत क़िला रहा है, लेकिन इस बार इमरान ख़ान वहां भी नवाज़ शरीफ़ के लिए सिरदर्द बने हुए हैं.

पंजाब में हमेशा से पीपीपी और नवाज़ शरीफ़ की पार्टी मुक़ाबले में नज़र आती थी लेकिन इस बार पीपीपी की जगह पाकिस्तान तहरीक-ए-इंसाफ़ ने ले ली है.

ये पाकिस्तान के चुनावी इतिहास में पहला मौका है जब दक्षिणपंथी विचारधारा वाले राजनीतिक दल बिना किसी गठबंधन और समझौते के चुनाव में हिस्सा ले रहे हैं और इससे उनके वोट बंट जाने की पूरी संभावना है.

पहले मुस्लिम लीग (एन) और मज़हबी जमातें मिलकर पीपीपी का मुक़ाबला करती रही हैं, लेकिन इस बार स्थिति अलग है और पीपीपी को इसका फ़ायदा हो सकता है.

कुछ विश्लेषकों का कहना है कि अगर वोटिंग का प्रतिशत 60 या उससे ज़्यादा रहा तो इमरान ख़ान सरकार बना सकते हैं. लेकिन इसके 50 प्रतिशत या उससे कम होने की स्थिति में मुस्लिम लीग (एन) और पीपीपी सरकार बनाने के बड़े दावेदार बनकर उभरेंगे.

अगर हालात ऐसे बनते हैं तो 'लोकतंत्र की ख़ातिर' दोनों दलों के एक साथ आने की संभावना को पूरी तरह अनदेखा नहीं किया जा सकता.

परवेज़ मुशर्रफ़ पहले 'नवाज़-ज़रदारी भाई-भाई' की वजह बने थे, लेकिन इस बार इसका क्रेडिट इमरान ख़ान को जाएगा.

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