हैदराबाद से छपने वाले एतमाद का संपादकीय है - बेक़सूर मुस्लिम नौजवान के क़त्ल पर सरकार की मुजरिमाना ख़ामोशी. अख़बार कहता है कि पुणे में 24 साल के आईटी प्रोफेशनल मोहसिन सादिक शेख़ की हत्या में हिंदुत्वादी संगठन 'हिंदू राष्ट्र सेना' के शामिल होने से मुसलमान चिंतित हैं.

अख़बार के अनुसार नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री पद संभालने के बाद ये इस तरह का पहला मामला है.

अख़बार लिखता है कि केंद्र में बनी नई सरकार की प्राथमिकताओं में आंतरिक और बाहरी सुरक्षा सबसे ऊपर है लेकिन इस घटना के चार पांच दिन गुज़र जाने पर भी उसकी मुजरिमाना ख़ामोशी अफ़सोसनाक है.

उत्तर प्रदेश में जारी घटनाक्रम पर जदीद ख़बर का संपादकीय है - ज़मीन खिसकने लगी. अख़बार कहता है कि ऐसा लगता है कि क़ानून व्यवस्था पर मुलायम सिंह यादव और उनके बेटे अखिलेश यादव अपनी गिरफ़्त खोते जा रहे हैं क्योंकि राज्य में एक के बाद एक बलात्कार की कई घटनाएं हुई हैं, जिनकी निंदा संयुक्त राष्ट्र तक ने की है.

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अख़बार लिखता है कि मुलायम सिंह हों या अखिलेश यादव, अगर उन्हें उत्तर प्रदेश में अपनी सरकार के पांच साल पूरे करने हैं तो जल्द से जल्द क़ानून व्यवस्था बेहतर करनी होगी, वरना आम चुनाव में राज्य की जनता से जो जनादेश दिया है, वो उसे दोहराने के लिए मजबूर हो जाएंगे.

पाकिस्तान के उर्दू अख़बार

उधर पाकिस्तान में सबसे बड़े टीवी चैनल जियो न्यूज़ का लाइसेंस 15 दिन के लिए निलंबित करने और उसके प्रसारण पर रोक की सब अख़बारों ने चर्चा की है.

अपने समूह के चैनल पर पाबंदी पर जंग लिखता है कि ऐसा लगता है कि सरकार ने आख़िरकार ताकतवर संस्थानों के सामने अपनी हार स्वीकार कर ली है.

जियो न्यूज़ के एंकर हामिद मीर पर हुए हमले और उसके बाद ख़ुफ़िया एजेंसी आईएसआई को ज़िम्मेदार ठहराए जाने की पृष्ठभूमि में ये पूरी कार्रवाई हुई है.

पिछले दिनों लंदन में गिरफ्तार एमक्यूएम नेता अल्ताफ़ हुसैन की गिरफ़्तारी पर नवाए वक्त ने लिखा कि गिरफ़्तारी के बाद पाकिस्तान के कई शहरों में विरोध का सिलसिला शुरू हो गया. अख़बार के अनुसार हालांकि पार्टी ने कार्यकर्ताओं को शांति पूर्ण विरोध का हिदायत दी लेकिन कई जगह घेराव और आगज़नी की घटना भी ख़ूब देखने को मिलीं.

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जानकारों को मुताबिक़ इन प्रदर्शनों के कारण दो दिन में ही पाकिस्तानी अर्थव्यवस्था को 25 अरब रुपये से नुकसान का नुकसान हुआ. अख़बार लिखता है कि मुत्तेहिदा के कार्यकर्ता कराची पर रहम खाएं. अल्ताफ़ हुसैन की गिरफ़्तारी की सज़ा पाकिस्तान और उसकी अर्थव्यवस्था नहीं देनी चाहिए.

अफ़ग़ानिस्तान में अमरीका नाकाम

दैनिक औसाफ़ ने पिछले दिनों एक अमरीकी सैनिक के बदले पांच तालिबान चरमपंथियों की रिहाई पर लिखा है. अख़बार ने अपने संपादकीय में कहा है कि अमरीका अफ़ग़ान तालिबान को आतंकवादी संगठन मानता है, और उसके नियमों के अनुसार आतंकवादी संगठनों से बातचीत की कोई गुंजाइश नहीं है, बावजूद इसके ओबामा ने अपने अधिकारियों से कहा कि वो तालिबान की कैद में मौजूद इकलौते फ़ौजी को रिहा कराएं.

'तालिबान की धमकी'

तालिबान की तरफ़ से हमलों की धमकी पर दैनिक खबरें लिखता है कि ये अफ़सोसनाक है क्योंकि इससे बातचीत का मामला बेहद उलझ जाएगा और शांति क़ायम करना एक सपना ही बना रह जाएगा.

दरअसल बीबीसी से बातचीत में तालिबान ने कहा था कि अगर सरकार बातचीत को लेकर गंभीर है तो वो भी इसके लिए तैयार हैं, लेकिन अगर सैन्य अभियान हुआ तो वो उसका जवाब देंगे.

इसी विषय पर रोजनामा दुनिया कहता है कि बातचीत के दरवाज़े सरकार ने नहीं, बल्कि तालिबान ने बंद किए हैं और वो ऐसी वजहों को लेकर जिनके बारे में कभी खुल कर कुछ नहीं बताया गया.

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