Case 1.

पिछले साल प्रेमनगर पुलिस ने अवैध खनन के खिलाफ ताबड़तोड़ कार्रवाई की। कई वाहन सीज किए और कई लोगों को अवैध खनन में गिरफ्तार किया। पुलिस की इस कार्रवाई से खनन माफियाओं में हड़कंप मच गया। चौकी इंचार्ज विकास रावत को कार्रवाई रोकने के लिए तमाम लालच दिए गए, बावजूद उन्होंने कार्रवाई जारी रखी। विकास रावत पर यह कार्रवाई इस कदर भारी पड़ी कि उन्हें तत्कालीन एसएसपी केवल खुराना ने लाइन हाजिर कर दिया था।

Case 2.

गत फ्राइडे शाम को द्वारहाट विधायक मदन सिंह बिष्ट परिवार समेत राजपुर रोड खरीददारी करने आए थे। इनोवा कार एक होटल के बाहर खड़ी थी। इसी दौरान जाखन चौकी इंचार्ज एमएस नेगी मौके से गुजरे। उन्होंने गाड़ी को हटाने की बात कही तो विधायक गर्म हो गए। मामला बढ़ा और विधायक की चौकी इंचार्ज से गरमा गरम बहस हुई। आखिरकार देर रात विधायक के दबाव में आकर एसएसपी ने चौकी प्रभारी एमएस नेगी को सस्पेंड कर दिया।

-नेता और अधिकारी की जुगलबंदी बना रहा कॉकटेल

-कॉकटेल की भेंट चढ़ चुके हैं पुलिस के कई जवान

-अधिकारियों की कार्रवाई से गिर रहा जवानों का मनोबल

DEHRADUN : कौन सुनेगा किसको सुनाएं इसलिए चुप रहते हैं। हिंदी फिल्म की गीत का यह मुखड़ा पुलिस महकमे पर सटीक बैठता है। महकमे के अधिकारी राजनैतिक दबाव में आकर काम करने वालों को ईनाम के तौर पर सस्पेंशन ऑर्डर थमा रहे हैं, जिससे पुलिसकर्मियों का मनोबल गिरने लगा है। राजधानी में इस तरह के तमाम घटनाएं सामने आ चुकी हैं। गत रोज जाखन चौकी इंचार्ज का सस्पेंड होना इसका ताजा उदाहरण है। बावजूद पीडि़त जवान कुछ नहीं बोल सकते हैं, क्योंकि उन्हें पता है कि महकमे में कोई सुनने वाला नहीं है।

राजनैतिक दखल हावी

दरअसल, राजस्व एरिया को छोड़ अन्य जगह लॉ एंड ऑर्डर को मेंटेन करना पुलिस के हाथों में है। थाने और चौकी के साथ बीट पुलिस इसके लिए जिम्मेदार है। राजधानी की बात करें तो यहां क्9 थाने और ख्9 चौकियां हैं। थाने और चौकी एरिया को अलग-अलग से बीट क्षेत्र बांटा गया है। बीट एरिया की हर गतिविधि पर नजर बनाए रखने के लिए बकायदा दो पुलिस कर्मी तैनात किए गए हैं। बीट पर तैनात जवान थाना इंचार्ज को रिपोर्ट करते हैं और थाना इंचार्ज सर्किल ऑफिसर को इससे अवगत कराता है। सर्किल ऑफिसर ही एसपी या एसएसपी को स्थिति से अवगत कराने के लिए उत्तरदायी होता है, लेकिन अब इस सिस्टम पर राजनैतिक दखल खासा हावी होने लगा है।

नेताओं का प्रेशर

नेता और अधिकारियों की जुगलबंदी ने एक ऐसा कॉकटेल तैयार कर दिया है, जिससे थाना और चौकी स्तर पर काम करने वाले जवान खासे परेशान हैं। वे नियम कानून में रहकर शांति व्यवस्था बनाने के लिए सख्ती करते हैं तो उनके मोबाइल फोन के घनघनाने का ग्राफ खासा बढ़ जाता है। छोटी-छोटी बात के लिए कभी नेताओं के फोन आते हैं तो कभी अधिकारियों के। नेता अपनी पहुंच का खौफ दिखाते हैं तो अधिकारी अपने पद का रौब गालिब करते हैं। हाल यह है कि जुगलबंदी का यह कॉकटेल कई जवानों के करियर पर बट्टा लगा चुका है। वे या तो लाइन में पड़े-पड़े अपनी किस्मत को कोस रहे हैं या फिर सस्पेंशन के बाद बहाली के लिए अधिकारियों के साथ शासन के चक्कर काट रहे हैं, लेकिन इसमें कुछ ऐसे जवान शामिल है जो बेहद काबिल हैं।

करें तो क्या करें

जुगलबंदी के इस कॉकटेल से जवान हताश हैं। वे भली भांति जानते हैं कि काम करना आसान नहीं है। क्योंकि नियम कानूनों में काम करने पर उनका सामना कभी न कभी ऐसे लोगों से होगा जो जुगलबंदी के कॉकटेल को और गहरा करने में अहम योगदान देते हैं। नतीजा उन्हें लाइन हाजिर या सस्पेंड होना पड़ सकता है। इसके विपरीत वे काम नहीं करते हैं, तो महकमे के अधिकारी डांट से उन्हें सम्मानित करेंगे। दोनों ही स्थिति में करियर पर बट्टा लगना तय है। खास बात यह है कि वे इसके खिलाफ आवाज उठाना भी चाहें तो कोई फायदा नहीं है क्योंकि महकमे में कोई सुनने वाला ही नहीं है। बेहतर यह है कि चुप रहो और मौज करों को फॉर्मूले पर काम करो। क्योंकि यही वह फॉर्मूला है जो सफल करियर के लिए जरूरी है।

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पुलिस लाइन है बेहतर

हाड़ कंपा देने वाली सर्दी हो या फिर गर्मियों की तन झुलसा देने वाली गर्मी। दोनों ही स्थिति में फील्ड में काम करना आसान नहीं है। बावजूद जवान अपना काम करते हैं, ऐसी स्थिति में जब उन्हें सही काम करने पर लाइन या फिर सस्पेंड कर दिया जाता है तो वे उनका मनोबल गिरना लाजमी है। ऐसे कई जवान हैं जो ईमानदारी की सजा भुगत रहे हैं। अब हर कोई फील्ड से बेहतर लाइन को मानता है। दबे जुबान में जवान अब स्वीकार भी करने लगे हैं कि लाइन में पड़े रहना ही बेहतर है।

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'पुलिस महकमे में राजनीतिक दखल बिल्कुल ठीक नहीं है। नेताओं के कहने पर किसी को पोस्टिंग या फिर लाइन हाजिर करने से अच्छा संदेश नहीं जाता है। पब्लिक में तो गलत मैसेज जाता ही है साथ ही जवानों का मनोबल भी गिरता है। जिसका असर लॉ एंड ऑर्डर मेंटेन करने पर पड़ता है। बेहतर यह है कि पुलिस रिफोर्म का गठन किया जाए। जो उत्तराखंड में लंबे समय से लंबित पड़ा हुआ है.'

-कंचन चौधरी भट्टाचार्य, पूर्व डीजीपी