मौसम से आवक हुई कमजोर
वैसे तो बकरा मंडी तीन दिन पहले से ही आबाद हो जाती है लेकिन इन तीनों दिनों में लगातार हुई बारिश ने आवक को कमजोर कर दिया। इसका असर बकरे के रेट पर पड़ा। शुरुआती दौर में इसकी कीमत पांच से पच्चीस हजार के बीच थी लेकिन आवक कमजोर पडऩे से इसके रेट में जबर्दस्त इजाफा हो गया। खराब मौसम के कारण बाहर से आने वाले अच्छी नस्ल के बकरे नहीं पहुंच सके। इससे बकरे की कीमत दस हजार से पैंसठ हजार तक पहुंच गई। इरफान अहमद बताते हैं कि आम बकरे की कीमत दस हजार मांगी गई तो थोड़ा सेहतमंद बकरे की कीमत बीस लेकर पचास हजार के बीच लगाई गई. 

इनकी रही demand
आदिल बताते हैं कि मार्केट में इस बार राजस्थान के अलावा इटावा की बरबरे और कानपुर की काल्वी प्रजाति के बकरों की डिमांड ज्यादा रही। करेली मार्केट में तोता परी बकरा लोगों की फस्र्ट च्वाइस बना हुआ था। इसका सबसे बड़ा कारण इसका सेहतमंद और सुंदर दिखना था। क्वालिटी के चलते इसके खरीदारी भी सेलेक्टेड ही थे क्योंकि इसका रेट कॉमन बकरों के रेट से काफी ज्यादा था.एवरेज कास्ट के बकरों की आपूर्ति यूपी के पहाड़ी इलाकों के अलावा एमपी ने पूरी की। इनके रेट पांच हजार से लेकर चालीस हजार के बीच था। इस बिजनेस से जुड़े लोगों का कहना था कि इस बार अकेले करेली मार्केट नौ करोड़ के आंकड़े को छू सकती है।  

बीमारी भी चेक करना जरूरी
बकरीद के ठीक पहले खराब हुए मौसम ने बाजार को जोरदार झटका दिया। अचानक बढ़ी ठंड के चलते कुर्बानी के लिए बिकने को मार्केट में आए बकरे बीमार हो गए। उन्हें खरीदने वाले इस बात की ताकीद कर रहे थे कि बकरा बीमार तो नहीं है। इससे जुड़े व्यापारियों का कहना था कि बेमौसम बारिश के चलते दूसरे प्रदेशों से आने वाली खेप यूपी की बजाय सीधे कोलकाता पहुंचा दी गई। वहां से यहां तक ट्रांसपोर्टेशन की कास्ट अलग से लगने से बकरों के दाम बढ़ गए। इसी की वजह से बकरों के रेट इस बार हाई हैं। इसके बाद भी मार्केट में खरीदारों की कमी नहीं थी। पूरे दिन बकरा मार्केट गुलजार रही और लोग अपनी पसंद की खरीदारी के लिए मार्केट पहुंचे. 

हजरत इब्राहिम अलहे सलाम की सुन्नत
बकरीद के दिन जानवरों की कुर्बानी देने की परंपरा की शुरुआत की कहानी भी बेहद दिलचस्प है। आफताब अहमद बताते हैं कि इसके पीछे जो प्रचलित कहानी है उसके मुताबिक खुदा से बेपनाह मोहब्बत करने वाले हजरत इब्राहिम अलहे सलाम के ख्वाब में एक रात खुदा ने दर्शन दिए। इच्छा जताई कि हजरत इब्राहिम अपने इकलौते बेटे को खुदा की राह में कुर्बान कर दें। हजरत इब्राहिम ने ख्बाव की बात को सच में बदलने के लिए दूसरे दिन अपने बेटे को तैयार किया और जंगल की ओर चले गए। कुर्बानी देने से पहले उन्होंने अपने बेटे हजरते इस्माइल अलहे सलाम को ख्वाब में जताई गई खुदा की इच्छा के बारे में बताया। इस पर इस्माइल ने भी खुदा की इच्छा को सर्वोच्च बताते हुए कुर्बान हो जाने का फैसला लिया और पिता से कहा कि वह आंखों पर पट्टी बांध लें ताकि बेटे की कुर्बानी देते हुए उनके इरादे कमजोर न पड़ें। कुर्बानी की छुरी चलती इसके पहले ही चमत्कार हुआ और इस्माइल की जगह एक जानवर कट गया। आखों से पट्टी हटने पर इब्राहिम को इस्माइल सही सलामत मिला तो वह दंग रह गए। मान्यता है कि खुदा इब्राहिम की परीक्षा ले रहे थे इसीलिए उन्होंने अंतिम समय में जन्नत से फरिश्तों को भेजकर इस्माइल को हटाकर उसके स्थान पर जानवर छुरी के नीचे रख दिए। तभी से बकरीद के मौके पर कुर्बानी की शुरुआत मानी जाती है। आफताब बताते हैं कि नियमानुसार कुर्बानी देने के लिए जानवर को खुद पालना होता है ताकि उसके प्रति भावनाएं जन्में और उससे अपनापन का एहसास मजबूत हो. 

प्रिय चीज खोने को तैयार होते हैं
इंजीनियर नसीम सिद्दीकी बताते हैं कि कुर्बानी का मकसद कि हर आदमी अपनी सबसे प्रिय चीज खोने के लिए खुद तैयार हो। उन्होंने कहा कि इस्लाम के प्रावधान, पांच वक्त की नमाज, रोजा, जकात, फित्रा, कुर्बानी और हज इंसान को मुकम्मल बनाते हैं। पांचों वक्त नमाज पढऩे वाले व्यक्ति को खुदा गलत रास्ते पर चलने से रोकता है। रोजा के पीछे मन पर नियंत्रण और कुर्बानी के पीछे प्रिय को खोने का जज्बा पैदा करना होता है। जकात और फित्रा का प्रावधान समाज में समानता लाने के लिए है। हज आदमी को एक सम्मान दिलाता है और माना जाता है कि वह हज कर चुका व्यक्ति दूसरों को सही राह दिखाएगा। नसीम के मुताबिक कुर्बानी चांद की दसवीं से शुरू होती है। यह तीन दिनों तक चलती है। इसका टाइम भी फिक्स्ड है। यानी कुर्बानी फजीर से असर की नमाज के बीच ही हो सकती है। तीन दिन का मौका इसलिए दिया गया है ताकि लोगों में कुर्बानी के लिए तैयार जानवर से मोहब्बत पैदा हो जाए और वह उसके लेकर सफर भी कर सके.

मौसम से आवक हुई कमजोर
वैसे तो बकरा मंडी तीन दिन पहले से ही आबाद हो जाती है लेकिन इन तीनों दिनों में लगातार हुई बारिश ने आवक को कमजोर कर दिया। इसका असर बकरे के रेट पर पड़ा। शुरुआती दौर में इसकी कीमत पांच से पच्चीस हजार के बीच थी लेकिन आवक कमजोर पडऩे से इसके रेट में जबर्दस्त इजाफा हो गया। खराब मौसम के कारण बाहर से आने वाले अच्छी नस्ल के बकरे नहीं पहुंच सके। इससे बकरे की कीमत दस हजार से पैंसठ हजार तक पहुंच गई। इरफान अहमद बताते हैं कि आम बकरे की कीमत दस हजार मांगी गई तो थोड़ा सेहतमंद बकरे की कीमत बीस लेकर पचास हजार के बीच लगाई गई. 

इनकी रही demand
आदिल बताते हैं कि मार्केट में इस बार राजस्थान के अलावा इटावा की बरबरे और कानपुर की काल्वी प्रजाति के बकरों की डिमांड ज्यादा रही। करेली मार्केट में तोता परी बकरा लोगों की फस्र्ट च्वाइस बना हुआ था। इसका सबसे बड़ा कारण इसका सेहतमंद और सुंदर दिखना था। क्वालिटी के चलते इसके खरीदारी भी सेलेक्टेड ही थे क्योंकि इसका रेट कॉमन बकरों के रेट से काफी ज्यादा था.एवरेज कास्ट के बकरों की आपूर्ति यूपी के पहाड़ी इलाकों के अलावा एमपी ने पूरी की। इनके रेट पांच हजार से लेकर चालीस हजार के बीच था। इस बिजनेस से जुड़े लोगों का कहना था कि इस बार अकेले करेली मार्केट नौ करोड़ के आंकड़े को छू सकती है।  

बीमारी भी चेक करना जरूरी
बकरीद के ठीक पहले खराब हुए मौसम ने बाजार को जोरदार झटका दिया। अचानक बढ़ी ठंड के चलते कुर्बानी के लिए बिकने को मार्केट में आए बकरे बीमार हो गए। उन्हें खरीदने वाले इस बात की ताकीद कर रहे थे कि बकरा बीमार तो नहीं है। इससे जुड़े व्यापारियों का कहना था कि बेमौसम बारिश के चलते दूसरे प्रदेशों से आने वाली खेप यूपी की बजाय सीधे कोलकाता पहुंचा दी गई। वहां से यहां तक ट्रांसपोर्टेशन की कास्ट अलग से लगने से बकरों के दाम बढ़ गए। इसी की वजह से बकरों के रेट इस बार हाई हैं। इसके बाद भी मार्केट में खरीदारों की कमी नहीं थी। पूरे दिन बकरा मार्केट गुलजार रही और लोग अपनी पसंद की खरीदारी के लिए मार्केट पहुंचे. 

हजरत इब्राहिम अलहे सलाम की सुन्नत
बकरीद के दिन जानवरों की कुर्बानी देने की परंपरा की शुरुआत की कहानी भी बेहद दिलचस्प है। आफताब अहमद बताते हैं कि इसके पीछे जो प्रचलित कहानी है उसके मुताबिक खुदा से बेपनाह मोहब्बत करने वाले हजरत इब्राहिम अलहे सलाम के ख्वाब में एक रात खुदा ने दर्शन दिए। इच्छा जताई कि हजरत इब्राहिम अपने इकलौते बेटे को खुदा की राह में कुर्बान कर दें। हजरत इब्राहिम ने ख्बाव की बात को सच में बदलने के लिए दूसरे दिन अपने बेटे को तैयार किया और जंगल की ओर चले गए। कुर्बानी देने से पहले उन्होंने अपने बेटे हजरते इस्माइल अलहे सलाम को ख्वाब में जताई गई खुदा की इच्छा के बारे में बताया। इस पर इस्माइल ने भी खुदा की इच्छा को सर्वोच्च बताते हुए कुर्बान हो जाने का फैसला लिया और पिता से कहा कि वह आंखों पर पट्टी बांध लें ताकि बेटे की कुर्बानी देते हुए उनके इरादे कमजोर न पड़ें। कुर्बानी की छुरी चलती इसके पहले ही चमत्कार हुआ और इस्माइल की जगह एक जानवर कट गया। आखों से पट्टी हटने पर इब्राहिम को इस्माइल सही सलामत मिला तो वह दंग रह गए। मान्यता है कि खुदा इब्राहिम की परीक्षा ले रहे थे इसीलिए उन्होंने अंतिम समय में जन्नत से फरिश्तों को भेजकर इस्माइल को हटाकर उसके स्थान पर जानवर छुरी के नीचे रख दिए। तभी से बकरीद के मौके पर कुर्बानी की शुरुआत मानी जाती है। आफताब बताते हैं कि नियमानुसार कुर्बानी देने के लिए जानवर को खुद पालना होता है ताकि उसके प्रति भावनाएं जन्में और उससे अपनापन का एहसास मजबूत हो. 

प्रिय चीज खोने को तैयार होते हैं
इंजीनियर नसीम सिद्दीकी बताते हैं कि कुर्बानी का मकसद कि हर आदमी अपनी सबसे प्रिय चीज खोने के लिए खुद तैयार हो। उन्होंने कहा कि इस्लाम के प्रावधान, पांच वक्त की नमाज, रोजा, जकात, फित्रा, कुर्बानी और हज इंसान को मुकम्मल बनाते हैं। पांचों वक्त नमाज पढऩे वाले व्यक्ति को खुदा गलत रास्ते पर चलने से रोकता है। रोजा के पीछे मन पर नियंत्रण और कुर्बानी के पीछे प्रिय को खोने का जज्बा पैदा करना होता है। जकात और फित्रा का प्रावधान समाज में समानता लाने के लिए है। हज आदमी को एक सम्मान दिलाता है और माना जाता है कि वह हज कर चुका व्यक्ति दूसरों को सही राह दिखाएगा। नसीम के मुताबिक कुर्बानी चांद की दसवीं से शुरू होती है। यह तीन दिनों तक चलती है। इसका टाइम भी फिक्स्ड है। यानी कुर्बानी फजीर से असर की नमाज के बीच ही हो सकती है। तीन दिन का मौका इसलिए दिया गया है ताकि लोगों में कुर्बानी के लिए तैयार जानवर से मोहब्बत पैदा हो जाए और वह उसके लेकर सफर भी कर सके।