बच्चों को राजनीतिक मंच पर लाए जाने के मुद्दे पर सवाल उठाए जा रहे हैं। क्या बच्चों का प्रयोग राजनीति में भी किसी टेलीविज़न विज्ञापन की तरह किया जाना चाहिए जहां पर बच्चों के भरोसे साबुन, टूथपेस्ट और घरेलू ज़रूरत की चीज़ें बेची जाती हैं।

विज्ञापन गुरू प्रहलाद कक्कड़ मानते हैं कि ये छवि बनाने की कोशिश है लेकिन ये नैतिकता का सवाल है। जबकि समाज शास्त्री पुष्पेश पंत मानते हैं कि ये एक राजनीतिक नेता का मतदाताओं को बताने का प्रयास है कि वे एक माँ हैं और अपने बच्चों को छोड़कर उनके बीच बार-बार नहीं आ सकतीं।

छवि का सवाल?

बच्चों का यूं तो राजनीति से कोई सीधा सरोकार नहीं होता है लेकिन अगर वो राजनीति से जुड़े किसी परिवार के अंग हो तो उनका सभाओं और रैलियों में शामिल होना कोई नई बात भी नहीं है।

प्रियंका गांधी भी बच्चों को सभाओं में लाने वाली पहली नेता नहीं हैं। देश की पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी बचपन से ही राजनीतिक माहौल में पली बढ़ीं। बिहार के पूर्व मुख्य मंत्री लालू यादव भी राजनीतिक सभाओं में अपने बेटे को ला चुके हैं। इनके अलावा भी कई नाम और हैं।

विज्ञापन गुरु प्रहलाद कक्कड़ ने बीबीसी हिंदी से हुई बातचीत में कहा, ''चुनावी सभाओं में बच्चे जाते हैं तो लोगों को नमस्कार करते है, हाथ मिलाते हैं, ऐसा जताने की कोशिश की जाती है कि बच्चे मासूम हैं, अच्छे हैं, मां-बाप अच्छे हैं, थैक्यू कहते हैं तो बंदा भी सही होगा। इसका सबसे ज़्यादा असर महिला वोटरों पर पड़ता है.''

प्रहलाद कक्कड़ का कहना है कि ये नैतिकता का सवाल है कि बच्चों को राजनीतिक सभाओं में लाना ठीक है कि नहीं। राजनीतिक विश्लेषक पुष्पेश पंत का कहना है, ''बच्चों को रैलियों में लेकर जाने से नेता की छवि पर बेशक फ़र्क पड़ता है। उदाहरण के तौर पर देखें तो प्रियंका जनता में ये छवि बना रही हैं कि वो अपने छोटे बच्चों और सारे ऐशो-आराम छोड़ कर जनता के बीच आई हैं उनकी सेवा के लिए.''

पुष्पेश पंत ने बीबीसी हिंदी से हुई बातचीत में कहा, ''प्रियंका अपने बच्चों को रैलियों में लाकर ये भी स्थापित करती हैं कि वो पिछले कुछ दिनों तक नदारद क्यों थीं। पहले उनके बच्चे छोटे थे तो वो उन्हें छोड़कर नहीं आ सकती थीं, अब चूंकि उनके बच्चे थोड़े बड़े हो गए है इसलिए वो जनता के बीच आ पा रही हैं.''

ग़ौरतलब है कि कुछ ही दिन पहले उत्तर प्रदेश में एक चुनावी रैली के दौरान प्रियंका गांधी को 'बरसाती मेंढक' कहा गया था। कारण ये बताया गया कि वो केवल चुनाव के समय ही प्रदेश में आती हैं।

पुष्पेश पंत कहते हैं, ''प्रियंका इससे दो पक्ष साफ करने की कोशिश कर रही है, एक तो ये कि वो भी आम तरह की एक माँ हैं, और दूसरा ये की वो अपना सारा ऐशो आराम छोड़कर जनता के बीच आई हैं.''

हालांकि कई लोगों ने पूछे जाने पर बीबीसी को बताया कि बच्चों को इतनी जल्दी राजनीतिक सभाओं में लाया जाना सही नहीं माना जा सकता क्योंकि इससे उनकी पढ़ाई पर असर पड़ता है।

लोगों की राय

दिल्ली के एक कॉलेज में पढ़ने वाली ममता कहती हैं, ''18 साल की उम्र से पहले जब वोट देने का अधिकार नहीं है तो फिर नेताओं को छोटे बच्चों को भी राजनीति में शामिल नहीं करना चाहिए और उन्हे केवल पढ़ाई में ध्यान लगाना चाहिए.''

सॉप्टवेयर प्रोफेशनल अमर कहते हैं, ''स्कूल जाने वाले बच्चों को राजनीतिक मंचों पर लाया जा रहा है इसके पीछे उद्देश्य केवल यही हो सकता है कि जनता की भावनाओं को जागृत कर अपनी ओर खींचा जा सके.''

कुछ लोग ऐसा भी मानते हैं कि नेताओं के बच्चों का राजनीतिक सभाओं में जाने में कोई बुराई नहीं है। अस्सी साल के दर्शन सिंह कहते हैं, ''ऐसा पहले भी हुआ है, नेता अपने बच्चों को स्टेज पर ले जाते हैं ताकि वो देख ले कि उनके माता पिता क्या करते हैं और जनता भी उन्हें पहचान ले, इसमें ग़लत क्या है?''

इस मुद्दे पर राय अन्य भी हैं लेकिन ज़्यादातर का सवाल यही है कि क्या राजनीति के कुटिल और जटिल मसले में अपने फ़ायदे के लिए बच्चों को शामिल किया जाना ठीक है?

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