कॉपियां जांचने तक को टीचर्स नहीं

गौरतलब है कि यूनिवर्सिटी अधिकारियों ने इसी सत्र (2013)क्र की परीक्षाओं से क्वेश्चन पेपर के पैर्टन में परिवर्तन करने का डिक्लेरेशन किया है। ये परिवर्तन करने के पीछे यूनिवर्सिटी का लॉजिक था कि प्राइवेट के 1.5 लाख और 6.3 लाख रेगुलर स्टूडेंट्स के हिंदी, सोशियोलॉजी और इंग्लिश सब्जेक्ट्स की लाखों कॉपियां जांचने के लिए परीक्षक (टीचर्स) ही कम पड़ जाते हैं। इसी चक्कर में पूरा रिजल्ट ही लेट हो जाता है।

तो 700 कॉलेजों के टीचर्स कहां गए

जबकि रिप्रेजेंटेशन सौंपने वाले डॉ। आरके सिंह, डॉ। देवेंद्र अवस्थी और कूटा के कोआर्डिनेटर डॉ। आनंद शुक्ला सवाल उठाते हैं कि आखिर जब कॉपियां जांचने को परीक्षक कम पड? जाते हैं तो यूनिवर्सिटी अपने से एफीलिएटेड 700 प्राइवेट कॉलेजों में काम कर रहे हिंदी, इंग्लिश और सोशियोलॉजी विषयों के अनुमोदित टीचर्स को क्यों नहीं लगाती? कमी पूरी हो जाएगी। आखिर प्राइवेट कॉलेजों के इन मानदेय टीचर्स को भी तो यूनिवर्सिटी का पैनल ही नियुक्त करता है, वो कॉलेजों में पढ़ा सकते हैं तो क्या एग्जाम कॉपीज चेक नहीं कर सकते। लेकिन इस सवाल पर यूनिवर्सिटी अधिकारी अनॉफीशियली कहते हैं कि प्राइवेट कॉलेजों से उनके मानदेय शिक्षकों को इवेलुएशन (कॉपी जांचने) के लिए बुलाया जाता है, लेकिन वो टर्न अप ही नहीं होते। आधे भी नहीं आते। क्यों नहीं आते इस बात का यूनिवर्सिटी या प्राइवेट कॉलेज मैनेजर्स जवाब भी नहीं देते हैं।

असल में वो टीचर्स कहीं हैं ही नहीं

अब यूनिवर्सिटी टीचर्स का आरोप है कि जिन प्राइवेट टीचर्स को यूनिवर्सिटी कॉपी जांचने बुलाती है, वो एक्चुअल में प्राइवेट कॉलेजों में पढ़ा ही नहीं रहे हैं, तो आएंगे क्या? आरोप है कि यही तो प्राइवेट कॉलेजों के मैनेजमेंट्स का गोलमाल है। वो टीचर्स के नामों और सैलरी का एप्रूवल लेकर उतनी रकम बचा लेते हैं। एप्रूव्ड टीचर्स के बजाए उससे भी आधी या चौथाई सैलरी में सब स्टेंडर्ड टीचर्स से कॉलेजों में पढ़वाते हैं।

तो खत्म हो जाएगी कोडिंग-डिकोडिंग

वहीं कूटा डॉ। आनंद शुक्ला का कहना है कि चार-पांच साल पहले भी यूनिवर्सिटी के क्वेश्चन पेपर्स में 10 नंबरों के ऑब्जेक्टिव टाइप सवाल आते थे। लेकिन इसके कारण प्राइवेट कॉलेजों और रूरल आउटर एरियाज के कॉलेजों में इसके कारण जमकर सामूहिक नकल होने लगी थी। एक टीचर क्लास में आकर किसी भी बहाने से मोबाइल नंबर आदि के रूप में दसो सवालों की सही च्वाइस (आंसर्स) बता जाता, और सभी स्टूडेंट्स का काम हो जाता था। लगातार मास कॉपींग की शिकायतों के बाद तत्कालीन वाइस चांसलर प्रो। एचके सहगल ने ऑब्जेक्टिव टाइप सवालों का प्रोवीजन खत्म करके कॉपियों में कोडिंग-डिकोडिंग की प्रक्रिया शुरू करवा दी थी। ये एक सफल व्यवस्था है। ऑब्जेक्टिव क्वेश्चंस वापस लाने से प्रो। सहगल की सफल कोडिंग व्यवस्था को तगड़ा झटका लगेगा। मास कॉपींग फिर से बढ़ेगी।

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