हमारे नेशनल एंथम में पहले तीन शब्द हैं 'जन गण मन'। जन यानि जनता। इसी जन को लेकर जनतंत्र बना है, यानि जनता का शासन। भले ही 15 अगस्त को एक बार फिर से आजादी का जश्न होगा मगर सवाल ये है कि क्या सच में जन आजाद है? क्या आपको नहीं लगता कि तंत्र यानि देश को चलाने वाला सिस्टम जन पर हावी है? हो सकता है हमारा ये कहना आपको नागवार गुजरे मगर आज जो हम आपको बताने, सुनाने और दिखाने जा रहे हैं, उसे समझने के बाद शायद आपको भी हमारी बातों पर यकीन हो जाये।

अफसर हैं टनाटन और जन मार के जी रहा अपना मन

आजाद भारत में सिस्टम किस तरह से आम आदमी की जिंदगी पर हावी है जरा गौर कीजिये। थाने में रिपोर्ट दर्ज कराने के लिये आप उन पुलिस वालों के आगे गिड़गिड़ाते हैं जो आपकी वजह से तनख्वाह उठाते हैं। एक सोशल प्रोग्राम के लिये आपको परमिशन के नाम पर दौड़ाया जाता है। जबकि आपकी किसी प्रॉब्लम का सॉल्यूशन जिस जनता दरबार में मिलना चाहिये, वहां भी आप तारीख दर तारीख दौड़ते ही रहते हैं।

एक एफआईआर तक नहीं लिखवा सकते आप

- आजादी के इतने सालों बाद भी अब तक नहीं बदली पुलिस की वर्किंग स्टाइल, थानों में रिपोर्ट दर्ज कराना आसान काम नहीं

- सिगरा इलाके में अपनी जमीन पर से कब्जेदारों को हटाने की शिकायत लिये आठ महीने से दौड़ रहा है एक अधेड़

- आज तक न लिखी गयी एफआईआर और ना ही उसे मिल सका है पुलिस से न्याय

VARANASI: मंगलवार, वक्त शाम ब्.फ्0 बजे। सिगरा थाने के गेट पर खड़ा एक अधेड़ शख्स जो कुछ परेशान सा नजर आ रहा है। आई नेक्स्ट टीम ने इस शख्स से जब पूछा कि थाने क्यों आये हैं आप? पहले तो उसने हमारा ही परिचय पूछ लिया। जब उसे पता चला कि हम मीडिया वाले हैं तो मानो उसके मन में तकलीफों का बांध टूट गया। इस शख्स ने अपना नाम शीतला प्रसाद, निवासी बैंक कॉलोनी (महमूरगंज) बताया।

आठ महीने से दौड़ रहे

शीतला प्रसाद की माने तो वह पिछले आठ महीने से सिगरा थाने का चक्कर लगा रहे हैं। पुलिस से सिर्फ एक फरियाद है कि वह या तो उनकी एफआईआर लिख ले या फिर उनकी जमीन पर किया गया अवैध कब्जा हटवा दे। शीतला प्रसाद ने बताया कि वह बैंक कॉलोनी में एक छोटे से किराये के मकान में बेटे संग रहते हैं। पत्‍‌नी की मौत के बाद दो बेटियों की शादी कर वह घर के पास ही एक छोटी सी हलवाई की दुकान से गृहस्थी चला रहे हैं। उन्होंने पाई पाई जुटाकर सितम्बर ख्0क्फ् में बलिया में तैनात एक सिपाही से निराला नगर में तीन सौ चालीस वर्ग फीट का एक प्लाट साढ़े तीन लाख रुपये में खरीदा था। उस वक्त इस प्लाट पर इलाके के एक दबंग का कब्जा था। सिपाही ने भी जमीन बेचते वक्त कब्जेदार को हटाने की गारंटी ली थी। लेकिन रजिस्ट्री के बाद सिपाही ने जिम्मेदारी से पल्ला झाड़ लिया। जमीन पर आज भी कब्जेदार काबिज है।

न्याय की जगह मिलती है दुत्कार

अपने देश में पुलिस को भले ही लोगों को न्याय दिलाने और अपराधियों पर अंकुश के लिये तैनात किया गया है मगर होता उलटा ही है। यहां से निराश लोग कोर्ट जाते हैं। अपराधी भी बेलगाम ही हैं। जबकि आम आदमी की रक्षा के लिये तैनात इस तंत्र में आम आदमी की कोई सुनवाई नहीं। शीतला रोज की तरह मंगलवार को भी सिगरा थाने पहुंचे थे। आपबीती सुनाते सुनाते उनकी आंखे भर आई। हमने कहा, अभी आप अंदर जाइये और फिर से कोशिश की कीजिये। हिम्मत बांध शीतला थाने के कार्यालय में पहुंचे और अपनी तहरीर को आगे बढ़ाते हुए कब्जे वाली जमीन को खाली कराने की गुहार लगाते हुए एफआईआर दर्ज करने की मांग की। वहां मौजूद पुलिस वालों ने शीतला को नजरअंदाज किया लेकिन बाद में शीतला पर एक कांस्टेबल भड़क गया और बोला कि 'दिमाग खराब है तेरा। क्या रोज रोज आ जाते हो सिर खाने। कहा न मुकदमा दर्ज नहीं होगा। भाग जाओ यहां से'।

थक चुका हूं साहब

थाने में मुंशी की ओर से दुत्कारे गए शीतला से बाहर आकर कहा, मैंने कहा था न कि कुछ नहीं करेंगे ये लोग। मैं कोर्ट में नहीं जाना चाहता, लेकिन अब कोई रास्ता नहीं बचा है। थक चुका हूं साहब। जमीन पर कब्जा करने वाला जमीन छोड़ नहीं रहा है और जमीन खाली कराने के लिए मैं पुलिस अफसरों से लेकर डीएम और तहसील के चक्कर काटते हुए थक चुका हूं। थाने में बुरे बर्ताव पर शीतला ने इतना ही कहा कि मुझे इसकी आदत हो गयी है। कभी चौकी तो कभी थाने आता रहता हूं। पुलिस रुपये मांगती है, कोल्ड ड्रिंक, चाय और समोसा लाने को बोलती है लेकिन कब्जा खाली कराने की बात पर गालियां देकर भगा देती है।

-------------

आसान नहीं 'मिशन परमीशन' से पार पाना

- किसी भी सोशल प्रोग्राम के लिये डिस्ट्रिक्ट एडमिनिस्ट्रेशन से परमीशन लेना है अनिवार्य

- परमीशन के प्रॉसेस में बीत जाते हैं कई दिन और सप्ताह

- सेमिनार कराने के लिये कमल वाजपेयी पांच दिन से दौड़ रहे हैं एडीएम सिटी के ऑफिस

क्ड्डह्मड्डठ्ठड्डह्यद्ब@द्बठ्ठद्गफ्ह्ल.ष्श्र.द्बठ्ठ

ङ्कन्क्त्रन्हृन्स्ढ्ढ : मंगलवार, वक्त दोपहर ख्.ख्0 बजे। एडीएम सिटी ऑफिस के दफ्तर के बाहर खड़े मिले अस्सी के निवासी कमल वाजपेयी। आई नेक्स्ट टीम ने जब कमल वाजपेयी से एडीएम सिटी ऑफिस आने का परपज पूछा तो उन्होंने बताया कि एक सेमिनार ऑर्गनाइज कराना है। उसकी परमीशन के लिये ही कई दिन से दौड़ रहा हूं। उम्मीद थी कि आज परमीशन मिल जाएगी। यहां पता चला कि अभी तो एलआईयू की रिपोर्ट आनी बाकी है। कब तक रिपोर्ट आएगी, इसका भी कोई ठीक-ठीक जवाब देने वाली नहीं है। सेमिनार की डेट नजदीक है। समझ नहीं आ रहा कि क्या करुं। पांच दिन में ये परमीशन नहीं दे पा रहे तो जिला क्या खाक चलाएंगे।

हर रोज लग रही दौड़

थोड़ा और कुरेदने पर कमल वाजपेयी बताया कि आज परमीशन के लिए दौड़ते हुए पांच दिन हो गये हैं। कभी थाने की रिपोर्ट चाहिए होती है तो कभी एलआईयू की। एक छोटा का प्रोग्राम कराना है। इसके लिए इतना पापड़ बेलना होगा पता नहीं था। अगर मालूम होता तो प्रोगाम ही नहीं कराता। सबसे पहले एक फार्म भराया गया। इसमें प्रोग्राम से संबंधित सारी इन्फार्मेशन मांगी गयी। कहां प्रोग्राम कराया जा रहा है, कितनी देर प्रोग्राम चलेगा, इसमें कितने लोग शामिल होंगे, इनमें कितने वीआईपी हैं, साउंड का सिस्टम क्या होगा और न जाने क्या-क्या। इतना सब इन्फार्मेशन देने के बाद पता चला कि पुलिस और एलआईयू की रिपोर्ट लगावानी पड़ेगी वह भी खुद से इन दोनों को एप्रोच करना होगा।

तीन दिन दौड़ते रहे थाने

सेमिनार कराने के लिए पंद्रह अगस्त का दिन मुकरर्र है। अस्सी घाट स्थित एक मकान में इसके लिए स्थान तय किया गया है। सीओ ऑफिस से रिपोर्ट लगाने के लिए भागदौड़ करनी पड़ी, फिर थाना। यह काम भी एक दिन में नहीं हो सका। सीओ ऑफिस और थाने जाने पर जवाब मिलता कि साहब अभी नहीं है शाम को आइएगा। दो तीन दिन तो इसमें बीत गए। इसके बीच छुट्टी आ गयी। बड़ी कोशिश करके पुलिस चौकी से रिपोर्ट लगवानी पड़ी।

सेमिनार की तैयारियां डिस्टर्ब

इसके बाद पता चला कि एलआईयू की रिपोर्ट तो अभी लगी ही नहीं है। पूरा दिन तो इसी में बीत रहा है। सेमिनार की तैयारियां भी डिस्टर्ब हैं। समय से परमीशन नहीं मिला तो प्रोग्राम नहीं हो पाएगा। स्वतंत्रता दिवस से जुड़े प्रोग्राम की परमीशन के लिये इतना नाटक है तो बाकी प्रोग्राम के लिये ये क्या करते होंगे, ये सोच कर हैरानी होती है। अगर कुछ लोगों को बौद्धिक चर्चा के जमा होना इतना खतरनाक समझा जाता है तो लोकल एडमिनिस्ट्रेशन बड़ी अन्य मसलों पर क्या कितनी सावधानी बरतता होगा यह तो भगवान ही जानें।

-------

जनता जुटेगी भी तो अफसरों के मन से

भले ही आप खुद को आजाद भारत का आजाद नागरिक समझे मगर इस आजाद देश में कुछ ऐसे भी नियम-कानून हैं जो हमें गुलाम बना कर रखते हैं। किसी भी सोशल प्रोग्राम के लिये एडमिनिस्ट्रेशन से परमीशन का नियम सिर्फ इसलिये है क्योंकि तंत्र नहीं चाहता कि कहीं पब्लिक इकठ्ठी हो। यदि इकठ्ठी होनी है तो उन्हें पहले से बताना होगा कि क्यों हो रही है, क्या होगा, कितने लोग होंगे, क्या करेंगे, कौन-कौन खास लोग होंगे, कितने देर तक मौजूद रहेंगे वगैरह। इसके बाद अफसर तय करेंगे कि ये प्रोग्राम होने दिया जाये या नहीं। कुछ मौकों पर पब्लिक गैदरिंग पर पूरी तरह रोक लगा दी जाती है। इसके लिये धारा क्ब्ब् का इस्तेमाल किया जाता है जिसमें पब्लिक की आजादी को प्रतिबंधित करने का प्रावधान है। अपने वाराणसी में ख्0क्ब् में जनवरी से लेकर अब तक करीब फ्भ् दिन ऐसे थे जब धारा क्ब्ब् लागू थी।

-------

क्भ् साल हो गये लेकिन नहीं मिली सड़क

-लहरतारा के एक फरियादी क्भ् साल से दौड़ रहे अफसरों के यहां मगर नहीं हुई सुनवाई

- तहसील दिवस पर टकराये आई नेक्स्ट टीम से तो सुनाई अपनी व्यथा, पक्का रास्ता निर्माण को लेकर अकेले लड़ रहे जंग

क्ड्डह्मड्डठ्ठड्डह्यद्ब@द्बठ्ठद्गफ्ह्ल.ष्श्र.द्बठ्ठ

ङ्कन्क्त्रन्हृन्स्ढ्ढ: दिन: मंगलवार, वक्त: दोपहर क्.ब्भ् बजे, स्थान: सदर तहसील कैम्पस। लहरतारा में पुराने कबीर मठ के पास रहने वाले राजकुमार मिश्रा एक बार फिर तहसील दिवस पर मंगलवार की दोपहर अपनी फरियाद लेकर सदर तहसील में पहुंचे थे। राजकुमार लास्ट तीन-चार साल से तहसील दिवस में अपनी समस्या लेकर पहुंच रहे है। लेकिन अभी तक उनकी फरियाद नहीं सुनी गई। आई नेक्स्ट रिपोर्टर की नजर जब कागजातों में उलझे राजकुमार पर पड़ी तो हमने उनके वहां आने की वजह पूछी। इतना पूछने पर उनका दुख दर्द सामने आ गया। रिमझिम फुहारनुमा बारिश में टीनशेड के नीचे फाइल में कागजातों को संवारते उलटते हुए राजकुमार ने बताया कि कि घर के सामने रास्ता निर्माण को लेकर साहब लोगों से गुहार लगाने आया हूं। इस बारिश के मौसम में कच्चे रास्ते पर चलना दूभर हो चुका है। स्थिति नरकीय है। खैर, इतना बातचीत होने के बाद राजकुमार ने अपनी फरियाद तहसील दिवस में दर्ज करा दी।

क्भ् सालों से नहीं बना रास्ता

कबीर मठ नई बस्ती स्थित सकरहियां के कच्चा रास्ते को पक्का करने की मांग को लेकर राजकुमार डिस्ट्रिक्ट एडमिनिस्ट्रेशन अनगिनत लेटर दे चुके हैं। अभी तक एडमिनिस्ट्रेशन की ओर से कोई पहल नहीं हो सकी। आठ से दस फीट चौड़े कच्चे रास्ते पर सबसे अधिक प्राब्लम स्कूली बच्चों को होती है। पिछले क्भ्-क्म् साल से रास्ते का पक्के निर्माण को लेकर संघर्ष चल रहा है। इसके बाद उस रास्ते का निर्माण नहीं हो पा रहा है। यह मामला कोर्ट में भी है। राजकुमार कहते हैं कि अगर रास्ते पर गिट्टी या खडं़जा बिछा दिया जाए तो काफी राहत मिल जायेगी। बस उसी के लिये तहसील दिवस पर चला आता हूं कि शायद कभी हमारी भी सुनवाई हो जाये।

एक प्लाट से लफड़ा

डिटेल पूछने पर राजकुमार ने बताया कि जिस रास्ते को पक्का कराने के लिये वो संघर्ष कर रहे हैं वहां रास्ते से सटे एक प्लाट को लेकर दो पक्षों में विवाद है। उस विवाद में एक पक्ष ने कोर्ट से स्टे ऑर्डर ले रखा है। इसी वजह से रास्ता पक्का नहीं हो पा रहा। एडमिनिस्ट्रेशन चाहे तो स्टे हटवा कर रास्ते को बनवा सकता है मगर कोई इंटरेस्ट नहीं लेता जबकि उस रास्ते से सैकड़ों लोगों को आना जाना है। जनप्रतिनिधियों से भी गुहार लगाई गई लेकिन नतीजा सिफर साबित हुआ।

जमीन के मामलों की झड़ी

मंगलवार को तहसील दिवस में ऐसे लोगों की भरमार थी जो जमीन पर कब्जा पाने, अतिक्रमण हटवाने और जमीन से जुड़ी अन्य समस्या को लेकर पहुंचे थे। यहां पर साहब मेरी फरियाद सुन लीजिये, मेरी जमीन दिलवा दीजिए, कब्जा हटवा दीजिए जैसी गुहार आम थी। इन फरियादियों से बातचीत में पता चला कि कोई पांच साल से दौड़ रहा है तो कोई छह महीने से। कहीं कोई सुनवाई नहीं है। कहीं थाना इंटरेस्ट नहीं ले रहा तो कहीं तलसीलदार और लेखपाल। बस कागजों पर फरियादियों की समस्याओं को समाधान हो रहा है।