RANCHI : राजधानी रांची से करीब 79 किमी दूर रामगढ़ जिले के रजरप्पा में स्थित मां छिन्नमस्तिस्के मंदिर सिद्धपीठ माना जाता है। भैरवी और दामोदर के संगम पर स्थित यह शक्तिपीठ तांत्रिक पीठ के रूप में प्रसिद्ध है। इस मंदिर का निर्माण कब हुआ, इसे लेकर पुरातात्विक विशेषज्ञों में स्पष्ट राय नहीं है। किसी की नजर में यह छह हजार साल पुराना मंदिर है तो कोई इसे महाभारत काल से जोड़कर देखता है। इस मंदिर को असम के कामाख्या मंदिर के बाद सबसे बड़ा शक्तिपीठ माना जाता है। यहां छिन्नमस्तिस्के मंदिर के अलावा महाकाली मंदिर, सूर्य मंदिर, दस महाविद्या मंदिर, बाबाधाम मंदिर, बजरंगबली मंदिर, शंकर मंदिर और विराट रुप मंदिर अवस्थित है। यह मंदिर आज तीर्थस्थल के साथ पर्यटक स्थल के रूप में विकसित हो चुका है। पूरे देश से लाखों श्रद्धालु हर साल यहां पूजा-अर्चना के लिए आते हैं।

बलि देने की है परंपरा

मंदिर में रखे एक शिलाखंड पर माता छिन्नमस्तिस्के का दिव्य रुप अंकित है। इसमें मां की तीन आंखें हैं। बांया पैर आगे की ओर बढ़ाए गए कमल पुष्पी पर खड़ी हैं तो पांव के नीचे कामदेव व रति शयनावस्था में हैं। माता की गर्दन के दोनों ओर से बहती रक्तधाराएं दो महाविधाएं ग्रहण करती हुई दिखाई देती है। इस प्रतिमा के अलावा यहां आवरण में एक प्रतिमा है, जो यहां की मूल पुरातन प्रतिमा है। इस मंदिर में अपनी मनोकामना के लिए बलि देने की परंपरा है। यहां हर दिन सुबह चार बजे से माता का दरबार सजना शुरू हो जाता है। उसी वक्त से ही पूजा-अर्चना के लिए श्रद्धालुओं की बड़ी संख्या मौजूद रहती है।

मंदिर की यह है मान्यता

मां छिन्नमस्तिस्के की उत्पति को लेकर कई कथाएं प्रचलित हैं। एक बार भगवती भवानी अपनी दो सहेलियों जया और विजया के साथ मंदाकिनी नंदी में स्नान कर रही थीं। स्नान के बाद सहेलियों को भूख लग गई। भूख से उनका रंग काला हो गया। तब उन्होंने भोजन के लिए भवानी से कुछ मांगा। भवानी ने कुछ देर इंतजार करने को कहा, पर दोनों ही बार-बार भोजन के लिए हठ कर रही थीं। कुछ देर बाद सहेलियों ने कहा कि मां तो भूखे बच्चे के लिए जल्द से जल्द भोजन की व्यवस्था करती है। सहेलियों की बात सुनकर मां भवानी ने तुरंत अपनी तलवार निकाली और अपने सिर को धड़ से अलग कर दिया। मां का कटा हुआ सिर सहचरियों के बांए हाथ में आ गिरा। इससे तीन रक्तधाराएं बह रही थीं। दो धाराओं को उन्होंने सहचरियों को प्रवाहित कर दिया। जिसका पान कर दोनों तृप्त हो गई। तीसरी धारा को देवी खुद पान करने लगीं, तभी से यह मंदिर छिन्नमस्तिका के नाम से विख्यात है। नवरात्र के समय इस स्थल पर श्रद्धालुओं की भारी भीड़ उमड़ती है।