BAREILLY:

दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र भारत की अपनी खूबी अनेकता में एकता है, जहां सबसे ज्यादा धर्म और संप्रदाय के लोग एक साथ सांस लेते है। इसकी बड़ी वजह है कि बिना किसी मजहब और भाषा में भेदभाव किए देश के संविधान में हर किसी को एक समान अधिकारी दिए गए हैं। जिस दिन देश के हर एक नागरिक के मौलिक अधिकारों की आजादी और सेफ्टी पर मुहर लगी। वह दिन यानि ख्म् जनवरी क्9भ्0 रिपब्लिक डे के तौर पर इतिहास में दर्ज हो गया। रिपब्लिक डे पर लागू संविधान में फंडामेंटल राइट्स के साथ ही फंडामेंटल ड्यूटीज का भी जिक्र था। लेकिन आजादी की खुमारी में संविधान से मिले अधिकारों की याद तो ज्यादातर को रही पर अपनी जिम्मेदारियों को याद रखना शायद ही किसी को गंवारा हुआ हो। यही वजह है कि देश के लोगों को एक धागे में पिरोने के लिए बनाया गया रिपब्लिक डे लोगों के लिए एक छुट्टी के दिन से ज्यादा अहम न रहा। न ही लोगों में ही कई मुद्दों पर एकजुट होने की नीयत बाकी रही। इस ख्म् जनवरी पर आई नेक्स्ट कीे कोशिश शहर के कुछ ऐसे ही मुद्दों पर लोगों को साथ लाने की है, ताकि आने वाले हर दिन जनता के लिए 'रि-पब्लिक' डे के तौर पर याद रहे।

मजहब ने कब सिखाया आपस में बैर करना

इस देश में अलग अलग धर्म-संप्रदाय के मोती जिस तरह एक धागे में पिरोए हुए हैं, वैसी मिसाल दुनिया के किसी और मुल्क को हासिल नहीं। लेकिन दुनिया को गंगा जमुनी की मिसाल देने वाला देश मजहब की दीवारों में बंटने लगा। यूपी में भड़के दंगों की आंच में बरेली भी बुरी तरह झुलसा। अपने धर्म की खूबी बयां करने और जुलुस निकालने की शिद्दत ने दूसरे मजहब के लोगों के साथ फसाद और झगड़े की शक्ल ले ली। हर कोई भूलने लगा कि अपने मजहब की आजादी के साथ ही दूसरे धर्म के लिए इज्जत और सद्भभाव रखना भी हमारे ही फर्ज हैं। यदि अपने धर्म के जुलूसों में खुलकर समर्पण दिखाया जाए तो दूसरे मजहब के जुलूस सड़क पर आने पर नाराजगी क्यों। अपने धर्म के प्रति जो श्रद्धा और समर्पण लोगों में है, उसका आधा भी यदि दूसरे मजहब के लिए दिलों में पैदा हो जाए तो क्या आपसी बैर की तस्वीर धुंधली न पड़ने लगेगी।

अपना शहर भी हो हर जुबां पर

माना कि महानगरों के मुकाबले शहर छोटा है अपना। न मेट्रो की रफ्तार है और न ही आसमान की ऊंचाई से होड़ करती इमारतें। लेकिन फिर भी यह शहर शुमार होता है देश व प्रदेश की राजधानी को जोड़ने वाली अहम कड़ी के तौर पर। उभरते मेडिकल हब के तौर पर। लेकिन दो राजधानियों के बीच होने के बावजूद हम वह सलीका खुद में न उतार सके जो बड़े महानगरों की पहली शर्त है। सड़कों के किनारे एनक्रोचमेंट बढ़ता रहा, ट्रैफिक कानून को अंगूठा दिखाना बंद न हुआ, विकास की चाह तो सड़कों पर आंदोलन करने को उकसाती रही। लेकिन अपना टैक्स अदा करने की फितरत कभी पनप ही न सकी। न अपनी जिम्मेदारी को समझा और न इसके लिए आगे आए। यदि हममें से हर कोई इस ओर अपना एक कदम भी आगे बढ़ाए तो शहर को बेहतर, सुंदर और स्मार्ट बनाने का सपना ज्यादा दिन सपना ही न रहे।

न टूटे रिश्तों की यह डोर

शादी महज दो इंसानों का बंधन नहीं, न ही यह सिर्फ दो परिवारों का ही मेल है। असल में यह एक और धागा है जो समाज को आपस में और भी मजबूती से बांधने की रस्म है। लेकिन आधुनिक होती पीढ़ी के लिए शादी शायद सात जन्मों का बंधन नहीं। न ही आपसी तालमेल की कमी पर उनमें वह सब्र है जो रिश्ते को बनाए रखने के लिए संजीवनी है। अब कुछ महीनों में ही शादियों के टूटने के केसेज परिवार परामर्श केन्द्र में पहुंचने लगे हैं। खाना पकाना, जेवर या सामान न मिलना और ज्यादा समय साथ न रह पाने जैसी शिकायतें रिश्तों की इस डोर को तोड़ने के लिए काफी मानी जा रही। जब एक शादी में शामिल होने के लिए समाज के कई लोग जुटते हैं, तो उसी के टूटने का असर भी समाज के कई लोगों पर पड़ता है। पति-पत्‍‌नी के इस अनमोल रिश्ते को बचाने की जिम्मेदारी उन दोनों इंसानों पर ही नहीं समाज की भी है। यदि समाज घर-घर से बनता है, तो यही समाज एक घर टूटने से कहीं न कहीं दरकता भी है।

ताकि जिंदा रहे इंसानियत

छोटे शहरों व कस्बों से बड़े महानगरों में जाने वालों की आम सी शिकायत होती है। महानगरों के लोग इंसान कम मशीन ज्यादा लगते हैं। हमेशा की भागमभाग, पल भर की फुर्सत नहीं। न ही दूसरे की तकलीफ और दर्द से कोई सरोकार। लेकिन बरेली ऐसा महानगर नहीं बना और न ही यहां के लोगों में मशीनी फितरत हावी हुई। फिर न जाने क्यों लोगों के दिलों में जरूरतमंदों के लिए संवेदना पत्थर बनने लगी। सड़क किनारे बेहोशी में पड़ा इंसान हो या

जंक्शन और किसी फ्लाई ओवर पर चीथड़ों में लिपटा कोई हाड़ मांस। सरसरी नजर भर डालकर लोग राह से गुजर जाते हैं। कोई जल्दी न होने के बावजूद ज्यादातर लोग समय बर्बाद होने या झंझट में फंसने के डर से आंख बचाकर निकल जाते हैं। इस ओर भी कोई संस्था या समाज का कोई तबका आगे आए और बाकियों को अवेयर करने की अलख जगाए। वरना इंसान तो हम शक्ल से कहलाएंगे लेकिन दिलों में इंसानियत ढूंढे न मिलेगी।

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गंगा-जमुनी तहजीब में लगातार धुलते बैर की बड़ी वजह आपसी मेलजोल की कमी है। हिंदू-मुस्लिम घरों की अलग कालोनियां बसती गई, धीरे-धीरे ये कम्यूनिकेशन गैप बढ़ा, गलतफहमियां दंगों के भयावह रूप में सामने आयी। सामाजिक सौहार्द को री-पब्लिक करने के लिए जरूरी है कि ये फासले कम हो, जिसमें सबसे कारगर है कि हम दूसरे धर्म के बारे में पढ़े और उसे जिंदगी में शामिल करें।

- शमशुल रहमान, सोशल एक्टिविस्ट

रिश्तों विशेषकर पति-पत्नी के रिश्तों की गर्माहट कम होती जा रही है, जिससे समाज की नींव कहे जाने वाला ये रिश्ता छोटी बातों पर भी टूटने लगा है। इसे री-कनेक्ट करना आज हमारे रिपब्लिक की जरूरत है। इसके लिए जरूरी है कि पजेसिवनेस से बचें, रिश्तों में एक-दूसरे को स्पेस दें।

- डा। मीना गुप्ता, साइकोलोजिस्ट

कॉन्सिटीट्यूशन से मिले फंडामेंटल राइट्स को लेकर तो हम हमेशा सजग रहते है, लेकिन इसमें निधार्रित फंडामेंटल ड्यूटीज निभाने के प्रति शुरू से ही हमें जागरूक नही किया गया। आज जरूरी है कि हम अपने अंदर सिविक सेंस को री-पब्लिक करें। नियमों का पालन न होने पर दंड भुगतने का डर हमारे अंदर ये आदते विकसित करने में मदद करता है।

- डा। प्रदीप जागर, बरेली कालेज

हमारे अंदर की संवेदनशीलता लगातार घटी है, जो समाज में लगातार बढ़ रही हिंसात्मक घटनाओं का कारण है। यदि हम एक सामाजिक नागरिक की तरह जियें तो हम संवेदनशील भी होंगे और समस्याएं खुद सुलझ जाएंगी। हमें अपनी इंडीविजुअल सोशल रिस्पांसिबिलिटी निभाने की जरूरत है।

- नितिका पंत, निदेशक-साकार संस्था