पहले यह विधेयक संसद के मानसून सत्र में ही पेश किया जाना था. लेकिन अब सरकार ने इसे टाल दिया है.

इस साल जून में केंद्रीय सूचना आयोग ने कहा था कि कांग्रेस और भारतीय जनता पार्टी समेत छह बड़ी राजनीतिक पार्टियाँ सूचना के अधिकार क़ानून के दायरे में आती हैं और देश के नागरिक उनसे सूचना मांग सकते हैं. आयोग के इस फ़ैसले के बाद कुछ पार्टियों को छोड़कर सभी पार्टियों ने एक स्वर से इस फ़ैसले की आलोचना की थी.

अगस्त में केंद्रीय कैबिनेट ने आरटीआई अधिनियम में संशोधन को मंज़ूरी दे दी, जिसके तहत राजनीतिक दलों को इस क़ानून से अलग रखने का प्रस्ताव था. सरकार ने ये भी कहा कि संसद के मानसून सत्र में इस संशोधन विधेयक को पेश किया जाएगा. लेकिन ऐन मौक़े पर सरकार ने इसे संसद की स्थायी कमेटी को सौंपने का फ़ैसला किया.

केंद्रीय मंत्री वी नारायण स्वामी ने लोकसभा में ये घोषणा की. उन्होंने कहा कि सरकार ये चाहती है कि इस विधेयक पर और चर्चा हो. अब इस विधेयक को संसद के शीतकालीन सत्र में पेश किया जाएगा.

विरोध

नहीं पेश हुआ आरटीआई संशोधन विधेयक

जबसे सरकार ने आरटीई संशोधन विधेयक लाने की घोषणा की थी, आईटीआई कार्यकर्ता इसका विरोध कर रहे थे. सामाजिक कार्यकर्ता अरुणा रॉय ने प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह से मुलाक़ात भी की थी.

कुछ राजनीतिक दलों ने भी सरकार के इस क़दम का विरोध किया था. बीजू जनता दल के जय पांडा ने सवाल उठाया कि राजनीतिक दलों को आरटीआई के दायरे से अलग क्यों रखना चाहिए.

आरटीआई क़ानून में संशोधन के प्रस्ताव में कहा गया था, "आरटीआई ऐक्ट के अंतर्गत राजनीतिक दलों को सार्वजनिक इकाई के रूप में घोषित करना उनके आंतरिक कामकाज को प्रभावित करेगा. क्योंकि ये क़ानून दुर्भावना वाले राजनीतिक विरोधियों को इस क़ानून के तहत आवेदन करने के लिए बढ़ावा देगा."

संशोधन प्रस्ताव में कहा गया था कि सार्वजनिक इकाई की परिभाषा में जन प्रतिनिधि क़ानून के तहत पंजीकृत राजनीतिक दलों को शामिल नहीं किया जाएगा. साथ ही ये भी कहा है कि इसके ख़िलाफ़ कोई भी याचिका किसी भी अदालत में स्वीकार नहीं की जाएगी.

सरकार और राजनीतिक दल कहते रहे हैं कि जन प्रतिनिधित्व क़ानून और आयकर क़ानून के तहत राजनीतिक दलों के वित्तीय मुद्दों पर पर्याप्त पारदर्शिता रखी गई है.

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