मंगलाराम एक ट्रक ड्राइवर है। जाति से दलित है। बाड़मेर ज़िले की धोरीमन्ना पंचायत के बामनोर गांव के रहनेवाले। सूचना के अधिकार के तहत पंचायत के खर्चे का हिसाब मांगने वाले मंगलाराम बताते हैं कि सूचना मांगने से बौखलाए सरपंच ने उनपर जानलेवा हमला करवाया। दोनों पैरों में कई जगह हड्डी टूटी है। आज लगभग 10 महीने बाद भी वो बैसाखी का सहारा लेकर चल रहे हैं।

हमले के बाद राज्य स्तरीय जाँच हुई जिसमें 11 लाख की अनियमितता पाई गई। इसके बाद राजनीतिक प्रभाव के चलते मामले की दोबारा ज़िलास्तरीय जाँच करवाए जाने के आदेश जारी हो गए।

ज़िला स्तरीय जाँच में अनियमितता पहले की तुलना में महज 10 प्रतिशत रह गई। पर किसी भी अनियमितता पर कोई कार्रवाई नहीं की गई। कह दिया गया कि जो काम अधूरे हैं या नहीं किए गए हैं, उनको पूरा करने के आदेश दे दिए गए हैं।

अभी तक सरपंच के खिलाफ प्राथमिकी तक दर्ज नहीं हो सकी है। न्याय की गुहार लगाते मंगलाराम ने 65 दिन का धरना भी दिया, मुख्यमंत्री से मिले पर सब बेकार।

स्थानीय दलित विधायक ने बहुमत वाले दूसरे संप्रदाय के सरपंच का साथ दिया और मंगलाराम अपनों के हाथों ठगे गए। उनका साथ देने वालों का कहना है कि प्रशासन उन्हें धमकाया और कहा कि ब्लैकमेल के आरोप में अंदर कर दिए जाओगे।

ऐसा ही एल दलित है पंचपदरा पंचायत के साजीअली गांव का अंबेश। अंबेश से सूचना देने के नाम पर 35 हज़ार जमा कराए गए। बदले में मिले साढ़े 17 हज़ार पन्ने जिनमें से एक भी उसके द्वारा मांगी गई सूचना से संबंधित नहीं। राजनीतिक दबाव और स्थानीय प्रशासन की धमकियां झेलता अंबेश अब राजस्थान हाईकोर्ट के दरवाज़े पर खड़ा है।

क़ानून कहता है कि बीपीएल व्यक्ति को सूचना बिना किसी शुल्क के मिलनी चाहिए पर अंबेश से 35 हज़ार वसूले गए। गरीब दलित कर्ज लेकर बेकार सूचनाओं की रद्दी सिर पर ढो रहा है।

दलित होने की क़ीमत

अंबेश के मामले में शोषण पिछड़ों के द्वारा हो रहा है। पिछड़ी जाति के लोग गांव और पंचायत में राजनीतिक वर्चस्व के साथ मज़बूत स्थिति में हैं। ऐसे में अनियमितताओं को उजागर करने की मंशा से मांगी गई सूचना उत्पीड़न के नए तरीके पैदा कर रही है। पर मंगलाराम का मामला एक और सच उजागर करता है।

दलित विधायक दलितों के संघर्ष के साथ न खड़ा होकर बहुमत और प्रभावशाली संप्रदाय के लोगों के साथ खड़ा है। ज़ाहिर है, अपने समाज का हित यहाँ निजी हित के आगे बौना है।

राज्य में पिछले कुछ वर्षों में दलितों को राजनीतिक और सामाजिक रूप से सिर उठाने पर उत्पीड़न झेलना पड़ा है या फिर जानें भी गंवानी पड़ी हैं।

इसके कई उदाहरण समय समय पर सामने आते रहे हैं। चाहे वो पाली ज़िले में सवर्णों के बच्चों के नाम (बाईसा) अपने बच्चों को देने पर एक दलित की दिनदहाड़े चौराहे पर हत्या का मामला हो या अगड़ों-पिछड़ों की इच्छा के विरुद्ध पंचायत चुनाव में उतरने पर एक दलित उम्मीदवार की वाहनों से निर्ममतापूर्ण कुचलकर की गई हत्या हो।

आंकड़े भी बताते हैं कि राज्य में दलितों के प्रति हिंसा में पिछले 10 वर्षों में बढ़ोत्तरी हुई है। दलित अधिकार केंद्र के निदेशक सतीश कुमार बताते हैं, “इसके कई कारण हैं। पहला, कि दलितों में जागरूकता बढ़ी है इसलिए ज़्यादा मामले दर्ज होने शुरू हुए हैं। दूसरा यह कि अपने अधिकारों के प्रति दलितों का संघर्ष और प्रयास तेज़ हुए हैं। तीसरा कारण यह है कि दलितों ने जैसे-जैसे सिर उठाना शुरू किया है, शोषण, उपेक्षा और उत्पीड़न के नए-नए तरीके भी सामने आने लगे हैं.”

दलित राजनीति

यहाँ अहम सवाल उठता है कि ऐसा क्यों है कि राज्य विधानसभा में अनुसूचित जाति-जनजाति के 56 विधायक होते हुए भी दलितों के शोषण उत्पीड़न की सुध लेने वाला, आवाज़ उठाने वाला कोई नहीं है।

बाड़मेर ज़िले के ही एक दलित सामाजिक कार्यकर्ता और पूर्व प्रधान उदाराम बताते हैं, “हमें यह समझना पड़ेगा कि बड़े राजनीतिक दलों का नेतृत्व किन जातियों के हाथों में है। बड़ी पार्टियां हमारे समाज से ऐसे लोगों को ही आरक्षित सीटों पर प्रत्याशी बनाती हैं जो कि दलितों के राजनीतिक संघर्ष से उठे लोग न होकर उनकी ही छत्रछाया में नेता बने कमज़ोर और अवसरवादी लोग हैं। ये लोग इन राजनीतिक दलों के लिए कठपुतलियों की तरह होते हैं.”

पत्रकार भंवरलाल मेघवंशी लंबे समय से राज्य में दलितों के मुद्दों पर काम कर रहे हैं। वो बताते हैं, “राज्य में दलितों का संघर्ष अब अगड़ों से कतई नहीं रहा। अगड़े तो अब प्रायः शहर के अपने सार्वजनिक कार्यक्रमों से लेकर घरों तक दलितों के साथ वैसा भेदभाव नहीं कर रहे जैसा कि पहले करते थे। हाँ, मगर पिछड़ों ने अपना पहला निशाना दलितों को बनाया है इसीलिए दलितों के शोषण के अधिकतर मामलों में आप पिछड़ों को ही शोषक के रूप में देखते हैं.”

इसकी वजह बताते हुए वो कहते हैं कि पिछड़े राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक वर्चस्व बनाकर अब मज़बूत स्थिति में हैं। और आगे निकलने की कोशिशों में वो संसाधन और सत्ता अगड़ों से तो छीनने से रहे, दलित ही उनको सबसे असहाय और कमज़ोर नज़र आता है इसलिए गांव में मेड़बंदी से लेकर राजनीति और आर्थिक मोर्चों पर वे दलितों को निशाना बना रहे हैं।

हालांकि कुछ सकारात्मक संकेत भी राज्य की दलित राजनीति से दिखने शुरू हुए हैं। दलित अधिकार केंद्र के निदेशक सतीश कुमार बताते हैं कि पिछले पंचायत चुनावों में 35 सामान्य सीटों पर दलित समाज के लोग जीतकर आए हैं।

इनमें भी 17 सीटों पर दलित महिलाएं जीती हैं। इससे यह संकेत मिलता है कि एक ज़मीन दलित राजनीति के लिए राज्य में बनने लगी है।

ज़ाहिर है, सत्ता पर काबिज जातियों से कामकाज में पारदर्शिता और भागीदारी की मांग करते दलित जितनी मज़बूती से सिर उठा रहे हैं, संघर्ष भी उतना पैना होता जा रहा है। फिर भी, दलितों में जागरूकता, एकजुटता और संघर्षों ने सकारात्मक ज़मीन तैयार करनी शुरू कर दी है। मंगलाराम जैसे हौसले और आत्मविश्वास से ही अधिकारों की ये लड़ाई खड़ी हो रही है और बढ़ रही है।

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