गांधी जी की बहुत सी बातें उन्हें उस समय के अन्य नेताओं से अलग करती हैं. इन्हीं में से एक है छोटी जाति के लोगों के साथ भेदभाव की प्रथा जिसे गांधी जी ने फ्रीडम स्ट्रगल की तरह ही प्रमुखता दी. गांधी जी ने हमें आजादी मिलने के पांच डिकेड्स पहले ही साउथ अफ्रीका में छुआछूत के खिलाफ अभियान शुरू कर दिया था. मुझे 1915 की उनके कोचरब आश्रम की एक घटना याद है. उनके एक निकट सहयोगी ठक्कर बप्पा ने दूधा भाई नाम के एक दलित को आश्रम में रहने के लिए भेजा. कस्तूरबा सहित आश्रम में रहने वाले हर व्यक्ति ने इसका विरोध किया, लेकिन गांधी जी ने स्पष्ट कर दिया कि दूधा आश्रम से नहीं जाएंगे. जिसे उनके रहने से प्रॉब्लम हो, वह आश्रम छोडक़र जा सकता है. उन्हें बताया गया कि इस पर कोई राजी नहीं होगा और आश्रम की फंडिंग में भी प्रॉब्लम हो सकती है. इस पर गांधी जी ने कहा कि वह आश्रम को दलित बस्ती में बना लेंगे, भले ही तब आश्रम में केवल वह और दूधा भाई ही रहें. आखिरकार सबने उनकी बात मान ली, लेकिन उनकी बहन गोकिबेन राजी नहीं हुईं और उन्होंने हमेशा के लिए आश्रम छोड़ दिया.
आखिर गांधी जी जाति के आधार पर भेदभाव के इतना खिलाफ क्यों थे? मुझे लगता है कि वह केवल पॉलिटिकल फ्रीडम ही नहीं चाहते थे. उनके लिए स्वतंत्रता का मतलब भारत के हर नागरिक के लिए आजादी था. एक ऐसी स्वतंत्रता जो बराबरी देती हो और हर नागरिक के सम्मान की रक्षा करती हो. उनकी इस विचारधारा में छुआछूत का कोई स्थान नहीं था.
आज हम अपने देश के बारे में सोचते हैं कि वह कैसा होगा, कुछ लोग सोचते हैं कि इंडिया आने वाले समय में सुपरपॉवर होगा, लेकिन क्या यह सब एक ऐसे देश में हो सकता है जहां लोगों के बीच दीवारें हों? क्या हम अपने सपनों का देश बना पाएंगे अगर हम सब एक बेहतर सोशल शेयरिंग का सपना न पालें? क्या एक कॉमन विजन जरूरी नहीं है? बेहतर सोशल शेयरिंग से मेरा मतलब क्या है? कोई पब्लिक प्रापर्टी, सडक़, पब्लिक हेल्थ सिस्टम, यह सब सोशल शेयरिंग के ही एग्जाम्पल्स तो हैं. दुर्भाग्य से हम सब इतने बंटे हुए हैं कि ये सब देख ही नहीं पाते. कोई अचरज नहीं है अगर हम रोड पर कूड़ा फेंकते हैं. हम पब्ल्कि हेल्थ सिस्टम में इंट्रेस्टेड नहीं हैं क्योंकि हम इसे अपना नहीं मानते. शायद इसीलिए यह खराब हालत में है. जब तक हम सब एक नहीं होंगे तब तक हमारी सोच एक नहीं होगी.
डॉ. बाबासाहब अंबेडकर के निर्देशन में बना हमारा संविधान एक ऐसे देश की परिकल्पना करता है जहां सब बराबर हों, जहां भाईचारा और सद्भाव हमारी ताकत बनें. जाति आधारित भेदभाव को गैरकानूनी बताया गया है. अब हमें दिल से स्वीकार करना होगा कि हमारे बीच में दीवारें हैं, मतभेद हैं. इसके बाद हमें इन बातों को दूर करने के बारे में सोचना होगा. उदाहरण के लिए, हमारे देश में कई ऐसी सोसायटीज हैं जो जाति या धर्म के आधार पर कुछ लोगों को मकान नहीं बेचतीं. इस तरह की छोटी सोच को दूर करना होगा.
इस दिशा में शायद सबसे बेहतरीन काम हम अपने बच्चों के जरिए कर सकते हैं. हम अपने बच्चों में अलगाव की यह सोच डालें. अगर हम इस तरह की भेदभाव की बातों को मानना बंद कर दें तो शायद हमारे बच्चों में यह आदत नहीं पड़ेगी.
यहां पर मुझे अपनी एक गलती का अहसास हो रहा है. शो पर जब मैंने सिर पर मैला ढोने की प्रथा के बारे में बेजवाडा विल्सन की बातें सुनीं तो मुझे शर्म आई कि पिछले साल तक मुझे अहसास नहीं था कि हमारे देश में कई जगह ऐसा हो रहा है. 46 साल की उम्र तक मैं इस अमानवीय प्रथा को देख ही नहीं सका कि सर्वाइव करने के लिए आज भी कुछ इंसानों को इंसानों की गंदगी अपने हाथों से साफ करनी पड़ती है. वह अपनी जाति के कारण इस कुप्रथा से बच नहीं सकते? मैंने इसे पहले नोटिस क्यों नहीं किया? शायद बचपन से ही यह सब देख रहा था और इसमें कुछ भी अजीब नहीं लगा. चूंकि मैं इसका शिकार नहीं था तो कभी उनके दुख व पीड़ा को महसूस ही नहीं कर सका.
अब इस पर कुछ करने का समय है. मेरा मानना है कि हम सभी को एक कॉमन गोल की तरफ काम करना चाहिए, एक ऐसे विजन पर काम करना चाहिए जो सभी भारतीयों का विजन हो.
जय हिंद, सत्यमेव जयते