अब तो जानने वाले भी कम 

एनसीजेडसीसी में चल रहे लोकरंग महोत्सव में फ्राइडे को महाराष्ट्र के आर्टिस्ट डॉ। हरिश्चन्द्र पी बोरकर के निर्देशन में फोक थियेटर खड़ी गम्मत की प्रस्तुति होनी थी। आई नेक्स्ट ने इस टीम को कुरेदा तो उन्होंने कहा कि अब तो इस कला के बारे में जानने वालों की संख्या भी कम रह गई है। इसे विलुप्त होने से बचाने के लिए बड़े अभियान की जरूरत है। उनके मुताबिक खडीगम्मत महाराष्ट्र सबसे प्राचीन कला है। इस पर शोध कर रहे डॉ हरिशचंद्र बताते हैं कि इस कला में विविधता है जो इसकी यूनीकनेस है। इसमें शाहीर ही खड़ीगम्मत का मुखिया होता है। उसे गायन के अलावा गीतों की रचनाओं में महारत हासिल होती है। खास बात यह है कि इसमें पुरूष ही महिला की भूमिका निभाते हैं. 

पूरे दिन की प्रस्तुति

डा हरिश्चंद्र बताते हैं कि इस कला की प्रस्तुति पूरी रात या फिर पूरा दिन खड़े होकर करनी पड़ती है। महिलाएं शायद इतने समय तक नहीं खड़ी रह सकतीं इसीलिए पुरुष ही महिला का भी रोल प्ले करते हैं। एक और खास बात यह है कि इसकी प्रस्तुति के दौरान बैलों की रेस आयोजित होती है. 

क्या है लोकनृत्य बरेदी

बरेदी लोकनृत्य मध्य प्रदेश से जुड़ा है। खास बात यह है कि प्राचीन समय में इसे सिर्फ यादव जाति के लोगों द्वारा प्रस्तुत किया जाता था। समय बदलने के साथ ही दूसरी जातियों के लोग भी इसकी प्रस्तुति से जुड़ते चले गए। इसमें मुस्लिमों की संख्या अधिक है। इसके निर्देशक मध्य प्रदेश के सागर जिले से बिलांग करने वाले मनीष यादव ने बताया कि यह लोककला बेसिकली एमपी के बुंदेलखंड एरिया में फेमस है। इसकी प्रस्तुति कार्तिक महीने की अमावस्या से लेकर पूर्णिमा के बीच होती है। इस बीच यादव जाति के लोग एक-दूसरे के घरों में गाय व भैंस की पूजा करते हैं और मिलकर नृत्य करते हैं। यह नृत्य कृष्ण की बाल लीलाओं पर आधारित होता है। इसकी उत्पत्ति भी कृष्ण युग से मानी जाती है. 

संकट के बादल 

मनीष बताते हैं कि इस विधा पर संकट के बादल मंडरा रहे हैं। इसे जिंदा रखने के लिए वह अपनी संस्था के माध्यम से 21 राज्यों में अभियान चला रहे हैं। उनका कहना है कि गवर्नमेंट को ऐसी कला और कलाकारों के बारे में सोचने की जरूरत है। तभी इनका भविष्य और इस कला को बचाया जा सकता है। उन्होंने लोक कला से जुडे वरिष्ठ कलाकारों से भी आग्रह किया है कि वे इसे बचाने में अपना योगदान दें.इन विधाओं से कलाकार शौक के चलते जुड़े हुए हैं। आज का युग प्रोफेशनल हो चुका है। आखिर रोजी-रोटी का जुगाड़ भी तो चाहिए। पैसा न होने की वजह से इसे कोई ज्यादा प्रमोट करने के बारे में नहीं सोचता। ऐसा ही रहा तो एक दिन ये कलाएं अपना अस्तित्व खो देंगी.

अब तो जानने वाले भी कम 

एनसीजेडसीसी में चल रहे लोकरंग महोत्सव में फ्राइडे को महाराष्ट्र के आर्टिस्ट डॉ। हरिश्चन्द्र पी बोरकर के निर्देशन में फोक थियेटर खड़ी गम्मत की प्रस्तुति होनी थी। आई नेक्स्ट ने इस टीम को कुरेदा तो उन्होंने कहा कि अब तो इस कला के बारे में जानने वालों की संख्या भी कम रह गई है। इसे विलुप्त होने से बचाने के लिए बड़े अभियान की जरूरत है। उनके मुताबिक खडीगम्मत महाराष्ट्र सबसे प्राचीन कला है। इस पर शोध कर रहे डॉ हरिशचंद्र बताते हैं कि इस कला में विविधता है जो इसकी यूनीकनेस है। इसमें शाहीर ही खड़ीगम्मत का मुखिया होता है। उसे गायन के अलावा गीतों की रचनाओं में महारत हासिल होती है। खास बात यह है कि इसमें पुरूष ही महिला की भूमिका निभाते हैं. 

पूरे दिन की प्रस्तुति

डा हरिश्चंद्र बताते हैं कि इस कला की प्रस्तुति पूरी रात या फिर पूरा दिन खड़े होकर करनी पड़ती है। महिलाएं शायद इतने समय तक नहीं खड़ी रह सकतीं इसीलिए पुरुष ही महिला का भी रोल प्ले करते हैं। एक और खास बात यह है कि इसकी प्रस्तुति के दौरान बैलों की रेस आयोजित होती है. 

क्या है लोकनृत्य बरेदी

बरेदी लोकनृत्य मध्य प्रदेश से जुड़ा है। खास बात यह है कि प्राचीन समय में इसे सिर्फ यादव जाति के लोगों द्वारा प्रस्तुत किया जाता था। समय बदलने के साथ ही दूसरी जातियों के लोग भी इसकी प्रस्तुति से जुड़ते चले गए। इसमें मुस्लिमों की संख्या अधिक है। इसके निर्देशक मध्य प्रदेश के सागर जिले से बिलांग करने वाले मनीष यादव ने बताया कि यह लोककला बेसिकली एमपी के बुंदेलखंड एरिया में फेमस है। इसकी प्रस्तुति कार्तिक महीने की अमावस्या से लेकर पूर्णिमा के बीच होती है। इस बीच यादव जाति के लोग एक-दूसरे के घरों में गाय व भैंस की पूजा करते हैं और मिलकर नृत्य करते हैं। यह नृत्य कृष्ण की बाल लीलाओं पर आधारित होता है। इसकी उत्पत्ति भी कृष्ण युग से मानी जाती है. 

संकट के बादल 

मनीष बताते हैं कि इस विधा पर संकट के बादल मंडरा रहे हैं। इसे जिंदा रखने के लिए वह अपनी संस्था के माध्यम से 21 राज्यों में अभियान चला रहे हैं। उनका कहना है कि गवर्नमेंट को ऐसी कला और कलाकारों के बारे में सोचने की जरूरत है। तभी इनका भविष्य और इस कला को बचाया जा सकता है। उन्होंने लोक कला से जुडे वरिष्ठ कलाकारों से भी आग्रह किया है कि वे इसे बचाने में अपना योगदान दें.इन विधाओं से कलाकार शौक के चलते जुड़े हुए हैं। आज का युग प्रोफेशनल हो चुका है। आखिर रोजी-रोटी का जुगाड़ भी तो चाहिए। पैसा न होने की वजह से इसे कोई ज्यादा प्रमोट करने के बारे में नहीं सोचता। ऐसा ही रहा तो एक दिन ये कलाएं अपना अस्तित्व खो देंगी।