- इतिहास के पन्ने तक सीमित रह गए भगत सिंह के गुरु

-शचींद्र नाथ सान्याल के जेल में बंद होने के बाद भगत सिंह ने उठाई थी क्रांति की मशाल

GORAKHPUR: 'शहीदों की चिताओं पर लगेंगे हर बरस मेले,

वतन पर मर मिटने वालों बाकींयही निशां होगा.' ये लाइनें आजादी के परवानों ने उन देशभक्तों के लिए? लखी थी जिन्होंने देश के लिए अपनी जान हंसते-हंसते दे दी थी। आजादी के ऐसे ही तीन दीवाने थे, भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेख। इन तीनों के ख्फ् मार्च क्9फ्क् को आजादी के तीन दीवानों को ब्रिटिश हुकूमत ने फांसी से लटका दिया था। आज उनकी शहादत को 8फ् साल बीत चुके हैं। जैसे समय बीतता गया लोगों के जहन से उनकी यादें भी मिटती गई। आज वे सिर्फ इतिहास के धुंधले पन्नों पर ही जीवित हैं, लेकिन क्या आप जानते हैं कि शहीद भगत सिंह का जुड़वा गोरखपुर से भी था। चौंकिए मत। क्योंकि जिस शचींद्र नाथ सान्याल से भगत सिंह प्रेरित थे उन्होंने अपनी अंतिम सांस क्9ब्ख् में गोरखपुर के दाउदपुर मोहल्ले में ली थी। भगत सिंह पर कई क्रांतिकारियों का प्रभाव रहा। यह बात उनकी चिट्ठियों से भी साबित होती है। लाला लाजपत राय, चंद्रशेखर आजाद और शचींद्र नाथ सान्याल जैसे क्रांतिक्रारी भगत सिंह के गुरु माने जाते हैं। यह बहुत कम लोग जानते हैं कि भगत सिंह जितने प्रभावित शचींद्र नाथ सान्याल से थे, उतना किसी से नहीं। यह बातें इतिहास में भी दर्ज हैं।

आजादी की जंग को किया मजबूत

कोलकाता के शचींद्र नाथ सान्याल का जन्म क्89फ् में हुआ था। क्908 में पिता की मौत के बाद वे वाराणसी चले गए। यह उनका देश को आजाद कराने का संकल्प ही था कि वे महज क्भ् साल की उम्र में आजादी के लड़ाई के मैदान में कूद पड़े। वाराणसी में शचींद्र ने न सिर्फ क्रांति की अलख को मजबूत किया बल्कि युवाओं को जोड़ कर अनुशीलन समिति बनाई। यह इतिहास के पन्नों में दर्ज है कि इस समिति ने आजादी की लड़ाई में कितना अहम रोल अदा किया। उनके साथ भगत सिंह और चंद्रशेखर आजाद जैसे आजादी के दीवाने कंधा से कंधा मिला चलते रहे और अंग्रेजी हुकूमत को उसके अंजाम तक पहुंचाते रहे। बनारस षडयंत्र कांड के समय सान्याल का नाम पहली बार पुलिस के रिकॉर्ड में आया। लाहौर कांड के बाद वे अंग्रेजी पुलिस की आंखों में 8 महीने तक धूल झोंकते रहे। अंत में उन्हें गिरफ्तार कर ही लिया गया। सान्याल को काकोरी कांड का दोषी बता कर आगरा जेल में भी रखा गया था। उसके बाद

क्त्रांति की इस लड़ाई में अंग्रेजों ने उन पर बाकुड़ा (राजद्रोह) और काले पानी की सजा सुनाई थी। एक गंभीर बीमारी के बाद उन्हें गोरखपुर भेज दिया गया, जहां उनका क्9ब्फ् में पुलिस की नजरबंदी के दौरान उनकी मौत हो गई।

अब केवल इतिहास के पन्नों में

आजादी की लड़ाई में अपना सब कुछ कुर्बान कर देने वाले शचींद्र नाथ सान्याल ने यह सोचा भी नहीं होगा कि उनकी कुर्बानी को लोग इस कदर भूल जाएंगे। जिस देश में आजाद रह कर लोग फक्र महसूस कर रहे हैं, उन्हें यह भी पता नहीं कि सान्याल कौन थे? सबसे बड़ी विडंबना यह है कि भगत सिंह को राह दिखाने वाले शचींद् नाथ सान्याल को शायद ही गोरखपुर में कोई जानता है। जबकि सान्याल ने सिटी में ही रह कर अंग्रेजों को पानी पिला दिया था। भूल से जिन्हें सान्याल के बहादुरी के किस्से याद है, वे या तो फ्रीडम फाइटर के रिश्तेदार हैं या फिर इतिहासकार। नई पीढ़ी को सान्याल के बारे में शायद कुछ नहीं मालूम। सिटी में सान्याल के नाम पर कुछ भी नहीं है। यदि है तो सिर्फ लाइब्रेरी की धूल फांकती किताबों के बीच कुछ पन्ने, जिनके अक्षर बमुश्किल पढ़े जाते हैं।

न प्रतिमा और न धरोहर भूल गए है

दाउदपुर मोहल्ले में बना लाल रंग का मकान आज भी शचींद्र नाथ की यादों को सहेजे हुए हैं। इसे प्रशासन की लापरवाही ही कहा जाएगा कि वहां न तो कोई बोर्ड है और न ही एक भी स्मारक चिन्ह, जिससे जाना जा सके कि यह किसी महान विभूति की धरोहर है। शचींद्र नाथ सान्याल ने हिंदुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन बनाया था। इससे शहीद भगत सिंह भी जुड़े और सुसंगठित और सशस्त्र क्रांति द्वारा भारतीय लोकतंत्र संघ का सपना संजोया गया।

लेकिन शचींद्र याद नहीं

शचींद्र नाथ सान्याल का बलिदान शायद गोरखपुर भूल गया। गोरखपुर में न तो उनकी कोई प्रतिमा है और न ही प्रशासन ने उनके मकान को धरोहर घोषित किया है। इसे उपेक्षा की कहा जाएगा कि जिस शहर मेंरहकर शचींद्र नाथ सान्याल ने?अपनी रणनीति से अंग्रेजों को पानी पिला दिया, वहां के लोगों को उनका नाम तक याद नहींहै। लोगों को भगत सिंह तो याद हैं लेकिन उन्हें शचींद्र याद नहींहै। जबकि शचींद्र ने भगत सिंह को राह दिखाई थी।

भगत सिंह के गुरु और गोरखपुर की धरती पर अपने प्राण त्यागने वाले आजादी के दीवाने शचींद्र नाथ सान्याल अब केवल इतिहास के पन्ने और किताबों तक ही सीमित रह गए। आज का यूथ उन्हें पूरी तरह भूल गया। शहर में न तो उनकी एक भी प्रतिमा है और न ही उन्हें सरकार ने एक धरोहर के रूप में अपनाया है। इसे दुर्भाग्य कहें या फिर देश भक्तों की उपेक्षा।

सुभाष अकेला, सामाजिक कार्यकर्ता