नोवार्तिस चाहती थी कि कैंसर की एक दवा के नए संस्करण (ग्लिवेक) के लिए उसे पेटेंट दिया जाए. जबकि भारतीय अधिकारियों ने कंपनी को इस आधार पर पेटेंट देने से इनकार कर दिया था कि दवा का नया संस्करण उसकी पुरानी दवा से बहुत ज़्यादा अलग नहीं है.

मेडिकल क्षेत्र में काम करने वाली संस्थाओं का कहना था कि अगर नोवार्तिस जीत जाती तो ये 'खतरनाक रुझान' साबित होता.

विवाद

इस मामले में वकील प्रतिभा सिंह ने कहा कि इस फैसले का मतलब ये है कि पेटेंट असली आविष्कार को ही मिलेगा और थोड़ा बहुत फेरबदल करने से नहीं मिलेगा. ऐसी स्थिति में अगर मुख्य मॉलीक्यूल को पेटेंट नहीं मिलता है तो दवाएँ भारतीय कंपनी भी बना पाएगी.

गलिवेक का इस्तेमाल ल्यूकीमिया और अन्य कैंसर के इलाज में किया जाता है. इसकी कीमत करीब 2600 डॉलर यानी करीब एक लाख तीस हज़ार प्रति महीना है.

जबकि भारत में इसका जेनरिक संस्करण करीब नौ हज़ार रुपए में मिलता है. नोवार्तिस ने अपनी दवा के नए संस्करण के लिए 2006 में पेटेंट के लिए अर्जी दी थी. उसका कहना था कि ये दवा आसानी से शरीर में समाई जा सकती है इसलिए इसे नया पेटेंट मिलना चाहिए.

पश्चिमी दवा कंपनियाँ कहती आई हैं कि अगर सुप्रीम कोर्ट ने नोवार्तिस के खिलाफ फैसला सुनाया गया तो इससे शोध में पैसा लगाने वालों को धक्का पहुँचेगा.

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