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JAMSHEDPUR: झारखंड की असुर जनजाति पिछले लगभग दो सौ वर्षो से वैज्ञानिक पद्धति द्वारा लोहा गलाकर उससे औजार बना रही है। असुर जनजाति की इसी पद्धति को टाटा स्टील ने अपनाया.टाटा स्टील द्वारा आयोजित जनजातीय सम्मेलन 'संवाद' के दूसरे दिन ट्राइबल कल्चर सेंटर में आदिवासी समुदाय और उसकी पहचान पर परिचर्चा हुई। इसमें अपनी संस्कृति से परिचय कराते हुए असुर जनजाति के विमल असुर ने यह दावा किया। उन्होंने बताया कि हमारे पूर्वज आदिम काल से सखुआ के पेड़ को सूखाकर उसे कोल के रूप में उपयोग में लाकर लोहा गलाने 'दिरी-टुकू' करते थे। हमें खुशी है कि हमारी पद्धति को टाटा ने उद्योग के रूप में विस्तार किया लेकिन दुख भी है कि हमारा नाम कहीं भी इतिहास के पन्नों पर नहीं है।

सामाजिक कुरीतियों से हैं घिरे

वहीं, उन्होंने बताया कि आज भी हमारे समुदाय के लोग सुदूर जंगल व पहाड़ पर निवास करते हैं और सामाजिक कुरोतियों से घिरे हुए हैं लेकिन वर्ष 2007 से हमने अपने गांव में बदलाव की पहल की। इस दौरान उनके गांव में देशी-विदेशी कंपनियों द्वारा माइनिंग कर बॉक्साइड के उत्खनन करने और उनकी जमीन छीने जाने पर चिंता जाहिर की।

इंडोनेशिया के नृत्य से बांधा समां

इंडोनेशिया के पपुआ आईलैंड से धानी समुदाय से नियाज व अल्फियान ने अपने पारंपरिक परिधान, चांवर और जानवरों के हड्डियों से आभूषण धारण कर नृत्य प्रस्तुत किया। इसे उपस्थित सभी समुदाय के लोगों ने खूब लुत्फ उठाया और साथ में जमकर थिरके भी। .ि

हमारे हक को दया के रूप में दे रही है सरकार

कर्नाटक के बेट्टा कुरूबा समुदाय के काला कल्लकर बताते हैं कि आदिवासियों के हक और अधिकार को सरकार दया के रूप में हमें दे रही है। जबकि जीवन जीने के लिए ये हमारे मौलिक अधिकार हैं।