यहां रह रहे जुबेनाइल की काउंसलिंग करने वाला कोई काउंसलर नहीं है। इन्हें महज 9000 सैलेरी मिलती है। पहले दो काउंसलर थे, मगर टीचर का जॉब मिलने से छोड़कर चले गए। प्रोवेशन ऑफिसर के चार पोस्ट में महज दो ही काम कर रहे हैं। इनका काम है जब भी कोई नया जुबेनाइल आता है, तो व्यक्तिगत डाटा, पढ़ाई का लेवल, उसका एटीट्यूड और सोशल इंवेस्टिगेशन रिपोर्ट बनानी होती है। इसी आधार पर बेहतर परफॉर्म करने वालों की रिपोर्ट चाइल्ड प्रोटेक्शन ऑफिसर को डिस्ट्रिक्ट में भेजा जाता है। इस रिमांड होम में वर्तमान में रह रहे बालकों में से अधिकांश चोरी के मामले हैं। इसके बाद धारा 307 यानी एटेम्पट टू मर्डर और तीसरे पायदान पर है धारा 376 यानी रेप। अंतिम पायदान पर धारा 302 यानी मर्डर है। यहां रह रहे जुबेनाइल के बीच विभिन्न एक्टिविटीज चलाई जाती है। वैसे यहां सुपरिटेंडेंट मनोज कुमार सिंह खुद ऐसे लोगों की काउंसेलिंग करते रहते हैं और छोटी कंप्लेन को भी गंभीरता से लेते हैं, ताकि यही छोटी घटना बड़ी न बन जाए.
बाहर से आ जाता है मोबाइल
रिमांड होम के अंदर ही जुबेनाइल कोर्ट चलने के कारण मुकदमे की तारीख पर एडवोकेट, बालकों के पेरेंट्स व गार्जियंस आते हैं। ऐसे में खासकर फिमेल मेंबर यदि मोबाइल लेकर चली गईं और जुबेनाइल को दे दिया, तो परेशानी होती है। सूत्र बताते हैं कि काला कोट पहन अपने को वकील बता अंदर आ जाते हैं। कोई आइडेंटिटी मांगने पर या मोबाइल को बाहर रखने पर गुस्से में आ जाते हैं और फिर यूनियन के माध्यम से आंदोलन शुरू हो जाता है। रिमांड होम के सूत्र बताते हैं कि यहां जुबेनाइल के नाम पर बाहर में रहे उनके आका प्रोत्साहित करते हैं। नाबालिग रहने तक जितना चाहो कमा लो या फिर हमारे लिए काम कर लो। ऐसे में क्राइम करने के बाद भी वे यहां का माहौल ठीक नहीं रहने देने या फिर अपने लिए काम करने को अन्य को जोडऩे व उत्प्रेरित करने का काम करते हैं। यह प्रशासन के लिए भी परेशानी का कारण बनता है। दो पैकेट बिस्कुट की चोरी करने वाले को भी पुलिस मामला दर्ज कर जेसीएल यानी जुबेलाइन इन कनफ्लिक्ट में भेज देते हैं। कायदे से उन्हें सीएनसीपी (चाइल्ड इन नीड ऑफ केयर प्रोटेक्शन) के तहत एनजीओ को भेजा जाना चाहिए। इससे उसे समाज की मुख्य धारा में लाया जा सके। ताकि वह अपनी नई जीवन शुरू कर सके.
अंदर में जुबेनाइल कोर्ट चलने से एडवोकेट व गार्जियंस का मूवमेंट होता है। इससे थोड़ी परेशानी होती है। मोबाइल के खिलाफ टाइम टू अभियान चलता है। काउंसलर नहीं हैं.
-मनोज कुमार सिंह, सुपरिटेंडेंट, बाल सुधार गृह, पटना सिटी
यहां रह रहे जुबेनाइल की काउंसलिंग करने वाला कोई काउंसलर नहीं है। इन्हें महज 9000 सैलेरी मिलती है। पहले दो काउंसलर थे, मगर टीचर का जॉब मिलने से छोड़कर चले गए। प्रोवेशन ऑफिसर के चार पोस्ट में महज दो ही काम कर रहे हैं। इनका काम है जब भी कोई नया जुबेनाइल आता है, तो व्यक्तिगत डाटा, पढ़ाई का लेवल, उसका एटीट्यूड और सोशल इंवेस्टिगेशन रिपोर्ट बनानी होती है। इसी आधार पर बेहतर परफॉर्म करने वालों की रिपोर्ट चाइल्ड प्रोटेक्शन ऑफिसर को डिस्ट्रिक्ट में भेजा जाता है। इस रिमांड होम में वर्तमान में रह रहे बालकों में से अधिकांश चोरी के मामले हैं। इसके बाद धारा 307 यानी एटेम्पट टू मर्डर और तीसरे पायदान पर है धारा 376 यानी रेप। अंतिम पायदान पर धारा 302 यानी मर्डर है। यहां रह रहे जुबेनाइल के बीच विभिन्न एक्टिविटीज चलाई जाती है। वैसे यहां सुपरिटेंडेंट मनोज कुमार सिंह खुद ऐसे लोगों की काउंसेलिंग करते रहते हैं और छोटी कंप्लेन को भी गंभीरता से लेते हैं, ताकि यही छोटी घटना बड़ी न बन जाए।
रिमांड होम के अंदर ही जुबेनाइल कोर्ट चलने के कारण मुकदमे की तारीख पर एडवोकेट, बालकों के पेरेंट्स व गार्जियंस आते हैं। ऐसे में खासकर फिमेल मेंबर यदि मोबाइल लेकर चली गईं और जुबेनाइल को दे दिया, तो परेशानी होती है। सूत्र बताते हैं कि काला कोट पहन अपने को वकील बता अंदर आ जाते हैं। कोई आइडेंटिटी मांगने पर या मोबाइल को बाहर रखने पर गुस्से में आ जाते हैं और फिर यूनियन के माध्यम से आंदोलन शुरू हो जाता है। रिमांड होम के सूत्र बताते हैं कि यहां जुबेनाइल के नाम पर बाहर में रहे उनके आका प्रोत्साहित करते हैं। नाबालिग रहने तक जितना चाहो कमा लो या फिर हमारे लिए काम कर लो। ऐसे में क्राइम करने के बाद भी वे यहां का माहौल ठीक नहीं रहने देने या फिर अपने लिए काम करने को अन्य को जोडऩे व उत्प्रेरित करने का काम करते हैं। यह प्रशासन के लिए भी परेशानी का कारण बनता है। दो पैकेट बिस्कुट की चोरी करने वाले को भी पुलिस मामला दर्ज कर जेसीएल यानी जुबेलाइन इन कनफ्लिक्ट में भेज देते हैं। कायदे से उन्हें सीएनसीपी (चाइल्ड इन नीड ऑफ केयर प्रोटेक्शन) के तहत एनजीओ को भेजा जाना चाहिए। इससे उसे समाज की मुख्य धारा में लाया जा सके। ताकि वह अपनी नई जीवन शुरू कर सके।
अंदर में जुबेनाइल कोर्ट चलने से एडवोकेट व गार्जियंस का मूवमेंट होता है। इससे थोड़ी परेशानी होती है। मोबाइल के खिलाफ टाइम टू अभियान चलता है। काउंसलर नहीं हैं।
-मनोज कुमार सिंह, सुपरिटेंडेंट, बाल सुधार गृह, पटना सिटी
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