क्या हैं generic medicine

फार्मा कम्पनियां नई दवाएं खोजती हैं तो उन्हें पेटेंट कराती हैयह पेटेंट हर जगह लागू होता है और कोई दूसरा उस कम्पनी की बिना अनुमति के उस दवा को उसी फार्मूले पर नहीं बना सकतापेटेंट का एक निश्चित समय होता है उसके बाद सरकार अन्य कम्पनियों के लिए उस दवा बनाने का अधिकार दे देती हैपेटेंट अवधि समाप्त होने पर एक कम्पनी का एकाधिकार समाप्त हो जाता हैअलग-अलग कम्पनियां जब एक ही दवा बनाती है तो वही दवा सस्ती हो जाती है

कई गुना अधिक हैं rate

ब्रांडेड मेडिसिन्स के रेट्स जेनरिक दवाओं से 2 से 15 गुना तक अधिक होते हैंउदाहरण के तौर पर डायक्लोफेनिक एसआर- 100 एमजी (एक पापुलर पेनकिलर) का 10 टेबलेट का रेट 51.91 रुपए है जबकि जेनरिक में इसी दवा के रेट 3.35 रुपए हैंवहीं एक 100 एमएल की कफ सीरप की ब्रांडेड कम्पनी की कास्ट 33 रुपए है तो वहीं जेनरिक में इसी फार्मूले की सीरप की कॉस्ट सिर्फ 13.30 रुपए हैयह तो सिर्फ दो ही दवाएं हैंमार्केट में बहुत सी ऐसी दवाएं हैं जिनकी कई गुना कीमत मरीजों से ऐठी जाती हैलेकिन डॉक्टर ब्रांडेड दवाएं ही डॉक्टर प्रिस्क्राइब करते हैं

केन्द्र सरकार ने भी पिछले सोमवार को पार्लियामेंट में एक प्रश्न के जवाब में कहा था कि ब्रांडेड डग्स के रेट्स प्रमोशनल ऑफर्स के कारण महंगे होते हैंकेमिकल्स एंड फर्टिलाइजर्स राज्य मंत्री ने एक रिपोर्ट प्रस्तुत की जिसमें ब्रांडेड और जेनरिक दवाओं में एक बड़ा गैप थाजैसे कि पैरासीटामाल का 10 टेबलेट की स्ट्रिप 14 रुपए की है तो वहीं जेनरिक में यह स्ट्रिप ढाई से तीन रुपए की है

मरीज के हित में जेनरिक दवाएं

भारत में जेनरिक दवाओं की मुहिम को छेडऩे वाले अशोक कुमार भार्गव ने बताया कि भारत में मेडिसिन्स की मार्केट लगभग एक लाख बीस हजार करोड़ रुपए की हैइसमें से ज्यादा एमाउंट जो हम लाइफ सेविंग ड्रग्स के लिए अदा करते हैं वह डॉक्टरों और अधिकारियों को खुश करने और कम्पनियों की जेब में ही जाता हैलेकिन अगर गवर्नमेंट जेनरिक दवाओं को बढ़ावा दे तो मरीजों की जेब ढीली नहीं होगीकेन्द्र सरकार ने इस पहल भी कर दी है लेकिन प्रदेश के अधिकारी जीओ होते हुए भी अभी असमंजस में हैउन्होंने कहा कि सरकार को चाहिए कि जेनेरिक दवाओं की एमआरपी को कंट्रोल करे ताकि मरीजों को सही दवा और सही दामों में मिलेउन्होंने कहा कि सरकार देश में तमाम चीजों पर सब्सिडी देती हैअगर वह 60 हजार करोड़ की धनराशि जेनरिक दवाओं के लिए दे दे तो अमीर गरीब सभी को मुफ्त में दवाएं मिलने लगेंगी

सिर्फ डॉक्टर पर है विश्वास

एक एंटीबायोटिक एक कम्पनी की 20 रुपए की है तो दूसरी ब्रांडेड कम्पनी की वही एंटीबायोटिक दवा और सेम कम्पोजिशन भी 50 रुपए की टेबलेटडॉक्टर ने लिख दिया तो मरीज आंख मूंद कर उसी की डिमांड करते हैंएक प्राइवेट कम्पनी में काम कर रहे विशाल मिश्र ने बताया कि डॉक्टर जब लिख रहा है तो दूसरी दवा कैसे ले लेंडॉक्टर को नॉलेज है दवा की या फिर मेडिकल स्टोर वाले कोसबसे बड़ी बात क्या पता उसी फार्मूले की दूसरी कम्पनी की टेबलेट में दवा सही मात्रा में है या नहीं

दवा की इफीकेसी चेक करने का कोई रूल नहीं

केजीएमयू में फार्माकोलॉजी डिपार्टमेंट के एसोसिएट प्रोफेसर डॉदेवेन्द्र कुमार कटियार ने बताया कि इंडियन गवर्नमेंट के ढीले नियमों के कारण ही मरीजों को सही दवाएं नही मिल पाती हैंहमारे यहां पर दवाओं की इफीकेसी चेक करने का कोई रूल नहीं हैइंडियन गवर्नमेंट के नियम से तो दवाएं सही बनती है लेकिन जब दवाएं मार्केट में आती हैं तो घटिया दवाओं को भी सप्लाई कर दिया जाता हैन तो नेशनल लेवल पर और न ही स्टेट लेवल पर दवाओं को चेक करने का कोई मशीन है

डॉदेवेन्द्र ने बताया कि जेनरिक दवाओं का कांसेप्ट तो अच्छा है लेकिन अधिकारियों की मिली भगत से 10 रुपए वाली जेनरिक दवा पर 50 रुपए एमआरपी डालकर बेचा जाता हैवहीं ब्रांडेड में 28 रुपए वाली दवा का प्रिंट रेट 30 से 35 ही होता हैउन्होंने बताया कि जेनरिक सस्ती है लेकिन मरीजों के लिए फायदेमंद तभी है जब बीमारी पर उसका असर होऐसा तभी होगा जब उसकी क्षमता को चेक करने का ऑप्शन हमारे पास में होगाअन्यथा वर्तमान में जेनरिक दवाएं मरीजों की बजाए डॉक्टरों और फार्मा कम्पनियों की जेब भर रही हैं

सीमित कम्पनियों को ही मिले मैन्युफैक्चिरिंग परमीशन

डॉदेवेन्द्र ने बताया कि जेनरिक दवाओं का कांसेप्ट मरीजों के लिए सस्ती दवाएं लाना थालेकिन वर्तमान परिस्थितियों को देखते हुए गवर्नमेंट को लिमिटेड कम्पनियों को ही जेनरिक दवाएं बनाने का लाइसेंस मिलना चाहिएऔर उनकी गुणवत्ता चेक करने के बाद ही मार्केट में भेजा जाए

 यह भी जानें

- भारत अभी दुनिया का तीसरा सबसे बड़ा दवा उत्पादक है

- यह हर साल 42 हजार करोड़ रुपये की जेनरिक दवाएं एक्सपोर्ट करता है

- यूनिसेफ अपनी जरूरत की 50 फीसदी दवाएं भारत से ही खरीदता है

- यह भारतीय दवाओं की अच्छी क्वालिटी का सबूत है.

 क्या कहते हैं अधिकारी

सबसे ज्यादा ब्रांडेड दवाएं ही लिखी जाती हैं लेकिन डॉक्टर कोशिश करते हैं कि मरीज को सही और सस्ती दवा ही प्रिस्क्राइब करेंआईएमए के डॉक्टर्स को मरीजों के लिए उचित दवाएं लिखने के लिए कहा जाएगा

डॉविजय कुमार, सेक्रेटरी , आईएमए लखनऊ

एफडीआई पर लगे पाबंदी

हाल ही में संसदीय कमेटी ने डॉक्टरों को बाउंड करने के कानून बनाने के सुझाव के साथ ही यहा भी कहा कि देश में पहले से स्थापित दवा कम्पनियों में एफडीआई पर पूरी तरह पाबंदी लगाई जानी चाहिएवाणिज्य विभाग की इस स्थायी संसदीय कमेटी ने फार्मास्युटिकल सेक्टर में एफडीआई के मुद्दे पर अपनी रिपोर्ट पेश की थीरिपोर्ट के अनुसार डॉक्टर्स द्वारा अलग अलग वजहों से जेनेरिक दवाएं न लिखना आम आदमी की सेहत पर भारी पड़ रहा हैइसके लिए जरूरी है कि सरकार एक कानून लाएकमेटी के अध्यक्ष व सांसद शांता कुमार इस पर कहा कि जेनरिक और ब्रांडेड मेडिसिन्स के दामों में 10 से 90 परसेंट का अंतर हैइस रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि विदेशी दवा कम्पनियों की भारत में दवा खोजने में कोई दिलचस्पी नहीं होतीवे यहां ऐसी दवाएं ही बनाना चाहती हैं जिनसे उन्हें ज्यादा से ज्यादा मुनाफा मिल सके