ऐसे हुई स्वाहा की उत्पत्ति

स्वाहा की उत्पत्ति से जुड़ी हुई भी एक पौराणिक कथा है। इस मान्यता के अनुसार स्वाहा प्रकृति की ही एक कला है। स्वाहा का विवाह अग्नि के साथ देवताओं के आग्रह पर सम्पन्न हुआ था। भगवान श्रीकृष्ण ने स्वयं स्वाहा को ये वरदान दिया था कि केवल उसी के माध्यम से देवता हविष्य को ग्रहण कर पाएंगे। हविष्य के याज्ञिक सामग्रियों में मीठे पदार्थ का भी शामिल होना आवश्यक है तभी देवता संतुष्ट होते हैं। सभी वैदिक व पौराणिक विधान अग्नि को समर्पित मंत्रोच्चार एवं स्वाहा के द्वारा हविष्य सामग्री को देवताओं तक पहुंचने की पुष्टि करते हैं।

अग्नि के माध्यम पहुंचता है हाविष्य

मंत्र विधानों की संरचना के आरंभ से ही इस पर विचार प्रारंभ हो चुका था कैसे हविष्य को उनके निमित्त देव तक पहुंचाया जाए। विविध उपायों द्वारा कई कोशिशें याज्ञिक विधान को संचालित करते वक्त की गईं। अग्नि को माध्यम के रूप में सर्वश्रेष्ठ पाया गया तथा स्वाहा को देवताओं तक हविष्य पहुचाने के लिए चुना गया।  श्रीमदभागवत तथा शिव पुराण में स्वाहा से संबंधित कई वर्णन किए गए है। ऋग्वेद, यजुर्वेद आदि वैदिक ग्रंथों में अग्नि की महत्ता पर अनेक सूत्रों की रचनाएं हुई हैं।

स्वाहा के बिना हाविष्य ग्रहण नहीं करते हैं देवता

पौराणिक कथाओं के अनुसार स्वाहा दक्ष प्रजापति की पुत्री थीं जिनका विवाह अग्निदेव के साथ किया गया था। अग्निदेव को हविष्यवाहक भी कहा जाता है। ये भी एक रोचक तथ्य है कि अग्निदेव अपनी पत्नी स्वाहा के माध्यम से ही हविष्य ग्रहण करते हैं तथा उनके माध्यम यही हविष्य आह्वान किए गए देवता को प्राप्त होता है। एक और पौराणिक मान्यता के अनुसार अग्निदेव की पत्नी स्वाहा के पावक, पवमान और शुचि नामक तीन पुत्र हुए।

हावष्यि पहुंचाने के लिए अग्नि का हुआ प्रयोग

ऋग्वैदिक आर्यों ने यज्ञीय परंपरा के दौरान देवताओं तक हविष्य पहुंचाने के लिए अग्नि का प्रयोग आरंभ किया। यज्ञ वेदी में हवि डालने के दौरान स्वाहा का उच्चारण किया जाता था। देव आह्वान के निमित्त मंत्र पाठ करते हुए स्वाहा का उच्चारण कर निर्धारित हवन सामग्री का भोग अग्नि के माध्यम से देवताओं को पहुंचाते हैं। कोई भी यज्ञ तब तक सफल नहीं माना जा सकता है जब तक कि हविष्य का ग्रहण देवता न कर लें। किंतु देवता ऐसा ग्रहण तभी कर सकते हैं जबकि अग्नि के द्वारा स्वाहा के माध्यम से अर्पण किया जाए।