- Inext के फोटो जर्नलिस्ट ने की मदद की पहल

- राहगीरों से चंदा मांगकर उन दोनों ने कराया अपने परिजन का अंतिम संस्कार

- लाश ढोने वाली गाड़ी के ड्राइवर ने कम रुपये मिलने पर बीच रास्ते में ही छोड़ा साथ

LUCKNOW: केजीएमयू में इलाज की आस में यूं तो हर रोज बहुतायत संख्या में लोग आते हैं। मगर इस चिकित्सा संस्थान में मानवीय संवेदनाओं के लिए कोई स्थान नहीं है। यह हम नहीं कह रहे हैं। संवेदनाओं की नब्ज थमने की यह दास्तान सुना रहे हैं हाल ही में घटित दो घटनाएं। अपने मरीज की लाश लिए मदद की गुहार लगाते दो गरीबों का चेहरा उनकी कमजोरी और लखनवाइट्स की 'दरियादिली' की दास्तान सुना रहा है।

उसकी लाश को कर दिया बाहर

पहली घटना में उन्नाव से यहां इलाज कराने एक शख्स की मौत हो गई। उसकी वाइफ के पास न तो मोबाइल था और न ही रुपए कि अपनों को फोन कर बुला सके। वह अभी अपने पति के मौत के सदमे को सहन ही कर रही थी कि ट्रॉमा के गेट के बाहर उसके पति की बॉडी निकाल दी गई। केजीएमयू के कर्मचारियों ने उसकी मदद करने या उसे कोई इंतजाम करने का कोई वक्त ही नहीं दिया। वह सड़क पर अपने पति की लाश देखकर रो पड़ी। वहां से गुजरते आईनेक्स्ट के फोटो जर्नलिस्ट को देखकर उसने मदद मांगा। अपनी जिम्मेदारी को समझते हुए उसने उसे कुछ रुपये दिये। इस पहल के बाद वहां मौजूद अन्य लोगों ने भी उसे रुपया देना शुरू कर दिया। यदि हॉस्पिटल एडमिनिस्ट्रेशन ऐसे गरीबों की मदद के लिए कोई व्यवस्था करे तो उससे बड़ी मदद क्या होगी। मगर यह शर्म की बात है कि वे ऐसा नहीं सोचते।

रास्ते में ही छोड़ दी डेड बॉडी

दूसरा केस डालीगंज के रहने वाले एक शख्स का है। वाइफ की लाश मच्र्युरी से बैकुंठ धाम ले जा रहे व्यक्ति को पैसे की कमी के कारण गाड़ी वाला ड्राइवर रास्ते में ही छोड़कर भाग गया। ऐसा अमानवीय व्यवहार देखकर वह रो पड़ा। मगर उधर से गुजर रहे आईनेक्स्ट फोटो जर्नलिस्ट ने उसकी कुछ रुपये देकर मदद की। इस पहल के बाद वहां से गुजर रहे लोगों ने उसे चंदा देना शुरू कर दिया। इसी बीच हमारे फोटो जर्नलिस्ट ने क्00 नम्बर पर पुलिस को फोन किया। इसके बाद फौरन ही वहां एक सिपाही ने आकर उसे लाश को बैकुंठ धाम तक ले जाने की व्यवस्था कर दी। ऐसा अक्सर पाया जाता है कि लाश गाड़ी वाले आए दिन लोगों की मजबूरी का फायदा उठाकर जरूरत से ज्यादा वसूली करते हैं।

दलालों के बिना नहीं मिलती गाड़ी

केजीएमयू में अगर किसी पेशेंट की डेथ हुई तो उसे घर ले जाने के लिए प्रशासन की ओर से कोई सुविधा तो उपलब्ध कराई नहीं जाती। पेशेंट के परिजनों को खुद ही उसे वहां से घर ले जाना पड़ता है। इसके लिए किराया भी 70-80 किमी जाने के लिए कम से कम दो हजार रुपए होता है। किराया अधिक इसलिए कि बिना मानकों वाली गाड़ी चलाने के लिए चौक पुलिस और आरटीओ अधिकारी भी हर महीने कमीशन लेते हैं। यही हच्ल मच्र्युरी के बार खड़ी रहने वाली लाश गाडि़यों का होता है। जहां दलाल की मदद लिए बिना किसी को भी गाड़ी नहीं मिलती।

शासन की ओर से कोई व्यवस्था क्यों नहीं?

प्रशासन की ओर से डेड बॉडी घर ले जाने के कोई व्यवस्था नहीं है। ट्रॉमा या अन्य विभागों में होने वाली डेथ के बाद कर्मचारी घरवालों को डेथ सर्टिफिकेट पकड़ा कर बाहर तक छोड़ देते हैं। और इतने में ही अपनी जिम्मेदारी से मुक्ति समझ लेते हैं। अक्सर ऐसी समस्या गरीब या फिर एक्सीडेंट में होने वाली डेथ के परिजनों को होती है। लेकिन प्रशासन इस पर कोई ठोस पहल उठाना नहीं चाहता।

कई बार लोगों को पैसों की दिक्कत होती है तो मानवीय आधार पर क्0-ख्0 किमी। तक डेड बॉडी घर तक भेजने की व्यवस्था की जाती है। या फिर घरवालों की डिमांड पर परिवार के अन्य लोगों के यहां पहुंचनेच्च्क च्च्र्युरी में रखवा दी जाती है। कोशिश की जाएगी कि भविष्य में कोई ऐसी व्यवस्था की जाए कि डेड बॉडी को घर तक भेजा जा सके।

डॉ। एससी तिवारी , सीएमएस, केजीएमयू