पीं पों के हुरपेटिया हारन के बीच कुछ सोचते हुए मुझे खरामा खरामा चलते देख किसी ने आवाज दी, क्या भाई कहां चले? कसम से मैं ऊंघ तो नहीं रहा था लेकिन सपने जरूर देख रहा था। उस नामाकूल की आवाज ने मेरा ख्वाब जरूर तोड़ा लेकिन मेरे खयालात को एक नयी दिशा दे दी। श्श्श्श् !!! चुपचाप सुनिएगा कि मैंने सपने में क्या क्या देखा। गाजीपुर में लंका बस अड्डे पर हमने अपनी साइकिल स्टैंड पर से उतारी। और दुई चार गो पैडिल मारी नहीं कि एकदम से पहुंच गये बनारस के गोदौलिया चौराहा। चारों तरफ बाइक, आटो, कार और ऊ नऊका ई रिक्सवा का रेलम पेल। ओही में हमऊ घुसा दिये अपनी बाइसिकल। तब्बे हमरे दिमाग में आया कि यार कासी आये और ठंडई न पीये त सब बेकारे है। सो लप्प देनी हम भी हैंडिल घुमाय के पहुंच गये मिश्राम्बु। आवाज में गर्मी लाते हुए आडर दे दिया, भइया एकठो हमऊ को रंगीन दे दो। दुकनदार ने हमरी काठी देख के थमा दिया हमरे साइज का एक गिलास। हरे रंग का तरंग उदरस्त कर जोर से डकार लेते हुए हम भी लपक कर चढ़ गये अपनी डराइविंग सीट पर।

काश बनारस की इन गलियों में हम भी चला पाते साइकिल!

चले भइया, हम चौक के अलंग। थाना डाक गये। ठठेरी बजार के तरफ बढ़े नहीं कि लगा जी ललचाए। अब गुरु राम भंडार, सत्यनारायण भंडार, कुबेर भंडार देखे के बाद केका जिगरा ऐसा है जौन जिह्वा पर कंट्रोल कर ले।  सो हमऊ दहिने बाएं होत के खड़े हो गये मामा जी कचौड़ी वाले की इहां। चार कचौड़ी भिड़ाये के बाद जब काया जरा तर हुई त चार ठो चांप लिया राम भंडार वाली मलाई की गिलौरी। अब सत्यनारायण भंडार क रसमाधुरी कहे लगी भइया जरा हमरो स्वाद चखो। पेट तो सुसरा भर गवा था लेकिन ई जौन पापी मन है ना ओका का कहें? ऊ भरा नहीं। सो हम थोड़ा बढ़ चले गोपाल मंदिर के अलंग। वहीं दिख गयी भइयो की मलइयो। अब साहब मलइयो देखे के बाद कौन रुकता है। पचास रुपैया में दुई पुरुवा काया में दे दिया। घड़ी देखा दस बज गवा।

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अब पेट भरे के बाद मन करे लगा बतकुच्चन का। सो हम पहुंच गये। दालमंडी। मुसाफिरखाना के पास भिंडी टी स्टाल पर। चाय के साथ फोकट में मिली कमेंट्री आन पालिटिक्स का जौन मजा हम लूटे हैं कि तबियत हरियरा गयी। अब हुवा कि चलो यार बिसनाथ गल्ली देत के चला जाए जरा दसासमेध, बंगाली टोला, देवनाथपुरा, केदारघाट और का नाम से के अवधगर्वी तक। सगरो घूम आए गुरु सइकिले से। मजा ई देखो कि एक से ऐ प्रेसर हारन के बीच हमरे सइकिल की घंटी भी जब टन्न से बज रही थी सब जने हट बढ़ जा रहे थे।

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अब तो यार मन में ई आगवा कि कुल त देख लिया अब चलो जरा मनकनका घाट तक हो लें। बरमनाल देतके घाट तक सरपट पहुंचो गये। घाट पर जरत के कई मुरदा देखा। गुरु, चिता से निकलत आंच जइसे तबियत गरमा गयी। मसान का बैराग कपार पर हिलोर मारै लगा। लगा कि यार आखिर में आकर जब सबके यहीं भस्मीभूत होना है त का हम दंद फंद किये पडै हैं? कबीर क एकतारा हमरे दिमाग में टुनटुनाये लगा। उनकी चक्की आसमान में जैसे नाचे लगी। तब्बै ऊ ससुरा लौंडा आवाज दे दिया और हमरी नींद जैसे उचट गयी। पर का बताएं यार कासी क गल्ली गल्ली जौन हम घूमी आए सइकिल से ओके भुलाना मुसकिले है। बाह रे कासी!!!

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